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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
जाति में जन्म की प्रधानता है
जहाँ तक हम लोगों की समझ है- जाति में जन्म की ही प्रधानता है, कर्म की नहीं। गीता के ‘चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।’[1]श्लोक के सम्बन्ध में लिखा, सो मेरी धारणा में आपने ठीक-ठाक उसका शब्दार्थ नहीं समझा है और अपनी मान्यता के अनुसार उसका अर्थ कर लिया है। आपने ‘गीता-तत्व विवेचनी टीका’ का उल्लेख किया, सो ठीक है। ‘गीता-तत्व विवेचनी’ में उपर्युक्त श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया गया है- ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चार वर्णों का समूह गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।’ इस श्लोक के स्पष्टीकरण में लिखा गया है-‘अनादिकाल में जीवों के, जो जन्म-जन्मान्तरों में किये हुए कर्म हैं, जिनका फलभोग नहीं हो गया है, उन्हीं के अनुसार उनमें यथायोग्य सत्व, रज और तमोगुण की न्यूनाधिकता होती है। भगवान् जब सृष्टि-रचना के समय मनुष्यों का निर्माण करते हैं, तब उन-उन गुण और कर्मों के अनुसार उन्हें ब्राह्मण आदि वर्णों में उत्पन्न करते हैं, अर्थात् जिनमें सत्वगुण अधिक होता है, उन्हें ब्राह्मण बनाते हैं, जिनमें सत्वमिश्रित रजोगुण की अधिकता होती है, उन्हें क्षत्रिय, जिनमें तमोमिश्रित रजोगुण अधिक होता है, उन्हें वैश्य और जो रजोमिश्रित तमः प्रधान होते हैं, उन्हें शूद्र बनाते हैं। इस प्रकार रचे हुए वर्णों के लिये उनके स्वभाव के अनुसार पृथक्-पृथक् कार्मों का विधान भी भगवान् स्वयं कर देते हैं। अर्थात् ब्राह्मण शम, दम आदि कर्मों में रत रहें, क्षत्रिय में शौर्य-तेज आदि हों, वैश्य कृषि-गोरक्षा में लगें और शूद्र सेवा-परायण हों- ऐसा कहा गया है- [2]। इस प्रकार गुणकर्म-विभाग पूर्वक भगवान् के द्वारा चतुवर्ण की रचना होती है। यही व्यवस्था जगत् में बराबर चलती है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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