1.अपने में श्रेष्ठता का अभिमान न रखना।
2.दम्भ का सर्वथा त्याग करना।
3.अहिंसा-व्रत का पालन करना।
4.अपना बुरा करने वाले का अपराध भी क्षमा कर देना।
5.मन-वाणी-शरीर से सरल रहना।
6.श्रद्धा-भक्तियुक्त होकर आचार्य की सेवा करना।
7.बाहर और भीतर से शुद्ध रहना।
8.मन को स्थिर रखना।
9.बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर को वश में रखना।
10.इस लोक और परलोक के सभी भोगों में वैराग्य हो जाना।
11.अहंकार का न रहना।
12.जन्म, जरा, रोग और मृत्यु आदि दुःख तथा दोषों का खयाल रखना।
13.स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि में मन का फँसा न रहना।
14.परमात्मा के सिवा किसी वस्तु में ‘मेरापन’ न रहना।
15.प्रिय-अप्रिय की प्राप्ति में चित्त का सदा समान रहना।
16.एक परमात्मा की अनन्य भक्ति में लगे रहना।
17.शुद्ध एकान्त देश में साधन के लिये निवास करना।
18.संसारिक मनुष्य-समुदाय में राग न रहना।
19.परमात्मा-सम्बन्धी ज्ञान में नित्य-निरन्तर लगे रहना।
20.तत्व ज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सदा सर्वत्र देखना।
(यह तत्व ज्ञान की प्राप्ति का साधन ज्ञान है, इसके विपरीत अभिमान दम्भादि आचरण ही अज्ञान है)