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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अहंकार ही दुःख कारण है
सभी के दुःख के कारण अहंकार, ममता, कामना और आसक्ति हैं! इनमें सबकी जड़ अहंकार है। जितना ही जिसका अहंकार बढ़ा है, उतनी ही ममता, कामना और आसक्ति बढ़ी है और उतनी ही मात्रा में वह अधिक-से अधिक संतप्त, अशान्त और बन्धनग्रस्त है। अहंकारी मनुष्य को बात-बात में अपमान का बोध होता है। और वह पद-पद पर अनेकों शत्रु पैदा कर लेता है। किसी से सीधी बात करने में भी उसे पीड़ा-सी होती है। वह अपने हठ के सामने किसी की भली बात भी नहीं सुनना चाहता। वह अपने ही हाथों नित्य बड़े गर्व के साथ अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है और उन्मत्त नशेबाजी की भाँति उसी में गौरव मानकर निर्लज्जता के साथ नाचता है। भगवान् ने गीता में कहा है- विहाय कामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः। ‘जो पुरुष सारी कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और निःस्पृह होकर संसार में आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।’ इसके लिये आपको भगवान् का भजन करना चाहिये। भगवान् की माया बड़ी दुरत्यय है। माया का आवरण हटे बिना अहंकारादि से छुटकारा पाना बहुत ही कठिन है और माया के महासागर से वही पार हो सकता है, जो मायापति भगवान् के शरणापन्न होकर उनका भजन करता है-‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।’ भगवान् कहते हैं- जो मेरा ही भजन करते हैं, वे इस माया से तरते हैं। भजन करने वालों में ज्यों-ज्यों भक्ति का विकास होता है, त्यों-ही-त्यों उसमें दैन्य आता है। वह सभी बातों में सर्वसमर्थ प्रभु का ही कर्तृत्व देखता है उसकी ममता जगत् में सब जगह से हटकर एकमात्र प्रभु के पाद पद्यों में ही केन्द्रित हो जाती है, एकमात्र प्रभु की प्रीति ही उसकी कामना का विषय बन जाती है। एकमात्र प्रभु की प्रीति ही उसकी कामना का विषय बन जाती है। फलतः प्रपंच से उसका अहंकार, उसकी ममता और कामना तथा उसकी आसक्ति अपने-आप ही हट जाती है। वह प्रभु का प्यारा बन जाता है और प्रभु उसे अपने हृदय में बसाकर निहाल कर देते हैं- सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।। बस, भगवान् को ही एकमात्र अपना मानकर लोभी के धन की भाँति उनके हृँदय में बसने का सौभाग्य प्राप्त कीजिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2/71)
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