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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
ज्ञान और भक्ति
‘ज्ञान के पथ’ को कृपाण की धार कहा जाता है, उससे गिरते देर नहीं लगती। एक तो वह सर्वसाधारण के लिये अगम्य होता है, दूसरे उसमें अनेक प्रकार के विघ्नों से स्खनल का भय रहता है। साधन भी उसका कठिन है- स्वयं भगवान् कहते हैं-‘अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।’ देहाभिमानियों के लिये अव्यक्त गति कष्ट साध्य है। देहाभिमान से छूटना सहज नहीं है। भक्ति में इससे कोई भय नहीं होता। वहाँ देर और उसका अभिमान दोनों श्रीहरि के चरणों में समर्पित हो जाते हैं। भक्त के योग-क्षेम का भार भगवान् पर होता है; वे ‘जिमि बालक राखइ महतारी’ की भाँति सदा भक्त की रख वाली में लगे रहते हैं। ज्ञान का चरम फल है मुक्ति-‘ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना।।’ परंतु राम का भजन करने वाले भक्त के पास वह मुक्ति अपने आप आती है- -इतना ही नहीं ज्ञान विज्ञान सब कुछ भक्ति के अधीन है- जैसे जल स्थल के बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार मोक्ष सुख भक्ति के बिना नहीं रहता- जिस अविद्या का नाश करने के लिये ज्ञानयोगी को बहुत प्रयत्न करना पड़ता है, वही भक्त के लिये अनायास सिद्ध है- और भक्तिहीन ज्ञान भी भगवान् को प्रिय नहीं है- श्रीमद्भागवत में तो यहाँ तक कहा गया है कि जो भगवान् की कल्याणकारी भक्ति की ओर से उदासीन होकर केवल ज्ञान-प्राप्ति के लिये क्लेश उठाते हैं, उन्हें केवल परिश्रम ही हाथ लगता है-ठीक उसी तरह जैसे भूसी कूटने वाले को चावल नहीं मिलता, केवल श्रम ही उठाना पड़ता है। श्रेयःस्त्रुतिं भक्तिमुदस्य ते विभो इस प्रकार विचार करके सबको भगवान् की भक्ति में ही मन लगाना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (10/14/4)
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