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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अपि चेत्सुदुराचारो
पापी दो प्रकार के होते हैं- एक वह, जिसकी पाप में पापबुद्धि है। उसके द्वारा पापकर्म बनता है, पर वह उसके हृदय मेंसदा काँटा-सा चुभता है। आदत, व्यसन, परिस्थिति और कुसंग आदि के कारण समय पर वह अनयिन्त्रित-सा हो जाता है और न करने योग्य कार्य कर बैठता है; परंतु पीछे उसे अपने उस दुष्कर्म के लिये बड़ी आत्मग्लानि होती है, बड़ा पश्चात्ताप होता है। ऐसी स्थिति में वह पुनः वैसा दुष्कर्म न करने का मन-ही-मन निश्चय करता है; परंतु अवसर आने पर पुनः विचलित हो जाता है। अन्त में रो-रोकर सर्वशक्तिमान् सदा-सर्वत्र वर्तमान दीनैकशरण्य भगवान् को ही अपना एकमात्र त्राणकर्ता मानकर उनसे प्रार्थना करता है। ऐसे ही पापी के सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं भगवान् ने घोषणा की है- अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। ‘महान् दुष्ट आचरण करने वाला पुरुष भी यदि मुझको अनन्य भाक् होकर (अर्थात् भगवान् के सिवा किसी भी साधन, कर्म, योग, ज्ञान, देवता या इष्ट को शरण्य और त्राणकर्ता न मानकर-केवल भगवान् को ही अपना एकमात्र रक्षक और आश्रयदाता जानकर) भजता है, उसे साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसका निश्चय सर्वथा यथार्थ है। वह बहुत शीघ्र धर्मात्मा (सारे पापों से सर्वथा छूटकर धर्ममय) बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। अर्जुन! तुम निश्चय सत्य मानो कि मेरे भक्त का (इस प्रकार एकमात्र भगवान् को ही परम आश्रय मानने वाले पुरुष का) पतन नहीं होता।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (9/30-31)
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