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(34)
(राग देशकार- ताल त्रिताल)
ऐसी कोई वस्तु नहीं है, ऐसा कोई स्थान नहीं।
ऐसा कोई भाव नहीं है, जिसमें श्रीभगवान् नहीं।।
सबमें सदा पूर्ण रहते वे, उनमें कुछ भी भिन्न नहीं।
जानकार-जन इस रहस्य का कभी ना होता खिन्न कहीं।।
जो विशेश श्रीयुत, विभूतियुत, बलयुत होते हैं सद्भाव।
हरि के तेज अंश से सम्भव उनमें हरि का खास प्रभाव।।
वर्णन कर विभूतियों का फिर, कहने लगे स्वयं भगवान्।
नक्षत्रों में शशि मैं ही हूँ, ज्योतिपुंज में सूर्य महान्।।
[1]
(35)
(राग परजत- ताल कहरवा)
जिससे जीव सकल निकले हैं, वो सब में रहता है व्याप्त।
मनुज पूज उसको स्वकर्म से होता परम सिद्धि को प्राप्त।।
[2]
हो मच्चित्त, तार देगी सब दुर्गों से मम कृपा अनन्त।
नहीं सुनोगे अहंकारवश, तो होओगे नष्ट तुरंत।।
‘नहीं करुँगा युद्ध’-अगर तुम अहंकारवश लोगे मान।
मिथ्या यह मान्यता, तुम्हें रण में जोड़ेगी प्रकृति महान्।।
[3]
जहाँ कृष्ण योगेश्वर प्रभु हों, जहाँ धनुर्धारी हो पार्थ।
मेरे मत से, वहाँ सदा श्री, विजय, भूति, धु्रव नीति यथार्थ।।
[4]
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