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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
वैराग्य और अभ्यास
जब तक भोगों में वैराग्य नहीं होगा, तब तक यथार्थ निष्काम कर्म, भक्ति और ज्ञान इनमें से किसी की प्राप्ति नहीं हो सकेगी! वैराग्य के आधार पर ही ये साधन टिकते हैं और बढ़ते हैं। इसीलिये अभ्यास के साथ वैराग्य की आवश्यकता बतलायी गयी है। बिना वैराग्य का अभ्यास प्रायः आडम्बर उत्पन्न करता है। जिनके मन में वैराग्य नहीं है, जो भोगों में रचे-पचे हैं, तथा भोग-वासना से ही कर्म, भक्ति, ज्ञान का आचरण करते हैं। वे लोग पापाचरण करने वाले तथा कुछ भी न करने वालों से हजारों दर्जे अच्छे अवश्य हैं, परंतु वास्तविक निष्काम कर्म, भक्ति, ज्ञान का साधन उनसे नहीं हो रहा है। और वे जो कुछ करते हैं उसके छूटने की भी आशंका बनी ही है। स्वार्थत्याग बिना निष्कामता नहीं आती, दूसरे सब पदार्थों से प्रीति हटाये बिना भगवान् से एकान्त प्रीति नहीं होती और जगत् के राग से छूटे बिना अभेद-ज्ञान नहीं होता। आज निष्काम कर्म, भक्ति और ज्ञान के अधिकांश साधक स्वार्थ, विषय-प्रेम और आसक्ति का त्याग करने की चेष्टा बिना किये ही निष्काम कर्मी, भक्त और ज्ञानी बनना चाहते हैं। इसी से वे सफल नहीं हो सकते। साधारणतः वैराग्य के क्रम से होने वाले सात लक्षण हैं- (1) श्रीभगवान् को छोड़कर लोक-परलोक के सभी भोगों में फीकापन मालूम होना, (2) विषयों में महान् भय और सर्वथा दुःख दिखायी देना, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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