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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवद्भक्ति और दैवी सम्पत्ति
यथार्थ बात तो यह है कि जब तक आपका यह विश्वास है कि जागतिक पदार्थों में-भोगों में सुख है और जब तक उनके संग्रह को ही आप सुख का साधन मानते रहेंगे; तब तक आपको सच्चे सुख के दर्शन कदापि नहीं होंगे। अमुक-अमुक विषयों की प्राप्ति से, अमुक प्रकार की परिस्थिति से मुझको सुख हो जायगा, यह बहुत बड़ा भ्रम है, इसी भ्रम के कारण मनुष्य दिन-रात विषय-चिन्तन में लगा रहता है। आपको यह सत्य सदा याद रखना चाहिये कि समस्त पापों का मूल विषय-चिन्तन है। श्रीमद्भगवद् गीता में अर्जुन ने भगवान् से पूछा था कि ‘इच्छा न रहने पर भी ऐसा कौन है, जिसकी पे्ररणा से मुनष्य मानो बलपूर्वक लगाया हुआ- सा पाप करता है?’ [1] श्रीभगवान् ने इसके उत्तर में स्पष्ट बतलाया कि ‘काम (कामना) ही वह वैरी है, जो महाशन है-जिसकी कभी तृप्ति होती ही नहीं और जो महान् पापी है; यह काम ही क्रोध बनता है और इस काम की उत्पत्ति होती है रजोगुण से।’ रजोगुण रागात्मक है। अर्थात् आसक्ति ही रजोगुण का स्वरूप है। इस आसक्ति से ही काम की उत्पत्ति होती है और आसक्ति होती है विषयों के चिन्तन से, विषय-चिन्तन में मनुष्य का मन जहाँ रम जाता है, वहाँ एक के बाद दूसरा क्रमशः सारे दोष उत्पन्न हो जाते हैं और अन्त में उसका सर्वनाश होकर रहता है। भगवान् ने कहा है- ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते। ‘मनुष्य मन से विषयों का चिन्तन करता है, विषय-चिन्तन से उसकी विषयों में आसक्ति होती है, आसक्ति से उनको प्राप्त करने की कामना उत्पन्न होती है, कामना में विघ्न पड़ने पर क्रोध (कामना के सफल होने पर लोभ) उत्पन्न होता है, क्रोध (या लोभ)-से मूढ़ता आती है, मूढ़भाव से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है, स्मृति के भ्रंश होने पर बुद्धि मारी जाती है और बुद्धि के नाश हो जाने से मनुष्य का पतन या सर्वनाश हो जाता है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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