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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
काम-क्रोधादि स्वभाव नहीं, विकार हैं
याद रखो- काम, क्रोध, लोभ आदि तुम्हारे स्वभाव नहीं हैं, विकार हैं। स्वभाव या प्रकृति का परिवर्तन बहुत कठिन है, असम्भव-सा है; पर विकारों का नाश तो प्रयत्न साध्य है। इसीलिये भगवान् ने गीता में ‘ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, प्रकृति का निग्रह कोई क्या करेगा’-कहा है; पर साथ ही काम-क्रोध, लोभ को आत्मा का पतन करने वाले और नरकों के त्रिविध द्वार बतलाकर उन्हें त्याग करने के लिये कहा है। इससे सिद्ध है कि ब्राह्मण-क्षत्रियादि प्रकृति का त्याग बहुत ही कठिन है, पर काम-क्रोधादि विकारों का त्याग कठिन नहीं है। याद रखो- काम-क्रोधादि विकार तभी तक तुम पर अधिकार जमाये हुए हैं, जब तक इन्हें बलवान् मानकर तुमने निर्बलता पूर्वक इनकी अधीनता स्वीकार कर रखी है। जिस घड़ी तुम अपने स्वरूप को सँभालोगे और अपने नित्य-संगी परम सुहृद् भगवान् के अमोघ बल पर इन्हें ललकारोगे, उसी घड़ी ये तुम्हारे गुलाम बन जायँगे और जी छुड़ाकर भागने का अवसर ढूँढ़ने लगेंगे। याद रखो- ये विकार तो दूर रहे, ये जिनमें अपना अड्डा जमाकर रहते हैं और जहाँ अपना साम्राज्य-विस्तार किया करते हैं, वे इन्द्रिय-मन भी तुम्हारे अनुचर हैं। तुम्हारी आज्ञा का अनुसरण करने वाले हैं, पर तुमने उनको बड़ा प्रबल मानकर अपने को उनका गुलाम बना रखा है, इसी से वे तुम्हें इच्छानुसार नचाते और दुर्गति के गर्त में गिराते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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