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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
विषय-चिन्तन ही पतन का कारण है
तुम्हारे पतन और विनाश का कारण है-विषय-चिन्तन और उत्थान तथा अमरपद की प्राप्ति का कारण है- भगवच्चिन्तन। जब तक मन केवल विषयों का ही स्मरण करता है, तब तक पाप-ताप से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। तुम यदि असल में पाप-ताप से छूटकर अपने जीवन को पुण्यमय, शान्तिमय, ऊँची स्थिति के भगवद्भाव से युक्त बनाना चाहते हो तो भगवान् का स्मरण करो। याद रखो- जो मन भगवान् के स्मरण से भरा है-उस मन से किसी भी कर्मके लिये जो प्रेरणा होती है, वह विशुद्ध होती है और उसके अनुसार होने वाला कर्म, चाहे देखने में बहुत ऊँचा न भी मालूम हो तो भी वह होता है परम पवित्र और भगवान् का पूजा स्वरूप! युद्ध-जैसा कर्म भी भगवत्प्राप्ति में हेतु होता है, यदि यह भगवान् के स्मरण से युक्त हो। इसी से तो भगवान् ने अर्जुन से कहा है-‘तुम सदा-सर्वदा मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो।’ भगवान् का स्मरण होते-होते जब भगवान् में ऐसा आकर्षण हो जायगा जैसा विषयों में विषयी पुरुष का और कामिनियों में कामियों का होता है, तब स्मरण अपने-आप ही होगा और तभी उस स्मरण में आनन्द का अनुभव होगा। जब तक वैसा नहीं होता, तब तक भगवान् के गुण, प्रभाव, लीला, नाम आदि को सुन-सुनकर उनमें मन लगाते रहो। याद रखो- अभी तुम्हारी चित्तवृत्ति व्यभिचारिणी हो रही है, क्योंकि उसने भोगों को ही आनन्द देने वाला मान रखा है और रात-दिन वह उन्हीं के साथ रमण कर रही है। भगवान् को छोड़कर जो भोगों के प्रति आकर्षण है, यही तो मन का व्यभिचार है। इसी से तो वह भगवान् के प्रति खिंचता नहीं है। मन भगवान् की ओर जाय, इसके लिये लगातार चेष्टा करते रहो? भगवान् के गुण सुनो, उनके नामों का कीर्तिन करो, सब कामों में भगवान् का हाथ देखो, उनकी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान करो, उनके भक्तों का संग करो और उनके माहात्म्य को प्रकट करने वाले ग्रन्थों को बार-बार पढ़ो! अपने मन को देखते रहो, वह कितनी देर भोगों का चिन्तन करता है और कितनी देर भगवान् का? सावधान! मन बड़ा धोखा देगा। तुम समझोगे, हमने उसे भगवान् के चिन्तन में लगा रखा है और वह छिपकर ऐसा भागेगा और इस प्रकार भोगों में रम जायगा कि तुम्हें पता भी नहीं लगेगा। बार-बार देखते रहो। जितना ही अधिक मन की ओर देखोगे, उतना ही वह जल्दी वश में होगा। ज्यों-ज्यों वह भागे त्यों-त्यों उसे खींच-खींचकर भगवान् में लगाओ। उसके सामने भगवान् के सौन्दर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य, आनन्द, शान्ति और कल्याणमय मंगलस्वरूप को बार-बार रखो। बार-बार उसे लुभाने की चेष्टा करो- भगवान् के मनोहर रूप से। सचमुच विषय तो भयंकर हैं, ऊपर से ही सुन्दर लगते हैं। अज्ञान शत्रु ने उनको विष मिले हुए लड्डू की तरह सुन्दर और स्वादिष्ट बना रखा है, परंतु भगवान् तो नित्य सुन्दर और नित्य मधुर हैं। मन एक बार उनकी झाँकी कर लेगा, उनकी सौन्दर्य-सुधार का स्वाद चख लेगा, फिर वहाँ से सहज में हटेगा नहीं। जिस दिन भगवान् माशूक बन जायँगे तुम्हारे मन आशिक के- उस दिन सब कुछ आप ही ठीक हो जायगा। चेष्टा करो और भगवान् की कृपा पर विश्वास करके अपने को बार-बार उनके स्वरूप समुद्र में डुबा देने का प्रयत्न करो। भगवत्कृपा से तुम सफल होओगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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