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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
निष्काम भाव क्यों नहीं होता?
याद रखो- जब तक किसी वस्तु का मन में महत्व है, जब तक उसकी ओर देखकर मन ललचाता है, जब तक किसी के पास वह वस्तु है, इसलिये उसे सौभाग्यवान् तथा ईश्वर का कृपापात्र समझा जाता है, जब तक उस वस्तु का अपने पास न होना अभाग्य का चिह्न माना जाता है, जब तक उसकी आवश्यकता का अनुभव होता रहता है और उसके प्राप्त होने पर अभाव तथा कष्ट का नाश एवं सुख-सुविधा की प्राप्ति होगी, ऐसी धारणा रहती है, तब तक मनुष्य उसकी कामना से कभी मुक्त नहीं हो सकता। उसमें निष्काम भाव नहीं आ सकता। याद रखो-‘निष्काम’ शब्द के रटने से तुम निष्काम नहीं हो सकते। निष्काम भाव मन में आता है और वह तभी आयेगा जब तुम जिस वस्तु की कामना करते हो, उस वस्तु में तुम्हारी दुःख दोष-बुद्धि, मलिन-बुद्धि, वह तुम्हारे लिये हानिकारक है, तुम्हारे यथार्थ सुख-सुविधा में बाधक है, ऐसी बुद्धि और उसमें असत्-बुद्धि वस्तुतः हो जायगी। याद रखो-मल को उठाकर कोई शरीर पर लेपना नहीं चाहता, उलटी को कोई मनुष्य चाटना नहीं चाहता, विष को कोई खाना नहीं चाहता, दुःख को कोई सिर चढ़ाकर स्वीकार नहीं करता, रोग से कोई प्रीति नहीं करना चाहता। इसी प्रकार जब इस लोक और परलोक के तमाम भोग-पदार्थों में, स्थितियों और अवस्थाओं में तुम्हारी मल-बुद्धि, वमन-बुद्धि, विष-बुद्धि दुःख-बुद्धि और रोग-बुद्धि हो जायगी, वे सब इसी प्रकार के दिखायी देंगे, तब उनसे तुम्हारा मन आप ही हट जायगा। फिर उनमें न आसक्ति रहेगी, न मोह ही रहेगा। फिर उन्हें अपनाना, अपना बनाना, उन पर अपनी ममता की मुहर लगाना, उसके न होने पर छटपटाना, चले जाने पर शोक करना, चले जाने की आशंका से ही व्याकुल हो जाना, उनको प्राप्त करने की कामना या इच्छा होना-आदि बातें नहीं रहेंगी। कामना का त्याग मन से हुआ करता है, वाणी से नहीं। सत्य की कल्याणमयी सुन्दर प्रतिष्ठा मन में ही हुआ करती है। अतएव तुम यदि जीवन में निष्काम भाव लाना चाहते हो तो काम्य-वस्तुओं में अनित्यता, मलिनता, दुःखरूपता और विनाशिता को देखो। भगवान् के बिना जितने भी भोग हैं-सब दुःख हैं, भयानक दुःखों की उत्पत्ति के स्थान हैं-यह अनुभव करो! फिर उनकी ओर मन का प्रवाह अपने-आप ही रुक जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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