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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीकृष्ण ही पुरुषोत्तम-तत्व हैं
गीता के पुरुषोत्तम-तत्व के सम्बन्ध में पूछा, सो वस्तुतः इस तत्व का यथार्थ ज्ञान तो भगवान् व्यास को ही है, जिन्होंने इसका उल्लेख किया है। मैं तो अपने विचार की बात लिख सकता हूँ और अपनी समय तथा दृष्टिकोण से मुझे इस मान्यता में पूर्ण विश्वास है। मेरी समझ से गीता के श्रीकृष्ण ही पुरुषोत्तम हैं। यही समग्र ब्रह्म हैं। ये क्षर से अतीत हैं, अक्षर से उत्तम हैं और सर्वगुय्यतम परम तत्व हैं। ये ब्रह्म की प्रतिष्ठा हैं। इनमें एक ही साथ परस्पर विरोधी धर्मों का प्रकाश है। ये निर्गुण हैं और अचिन्त्यानन्त कल्याण-गुणगणस्वरूप हैं, ये सर्वेन्द्रिय विवर्जित हैं और सर्वेन्द्रिय गुणाभास हैं। ये कर्तृत्वहीन हैं और सर्वकर्ता हैं; ये अजन्मा हैं और जन्म धारण करते हैं; ये सबसे परे हैं और सदा सब में व्याप्त हैं, ये सर्वथा असंग हैं और नित्यप्रेम परवश हैं। यही अर्जुन के सखा हैं, सारथि हैं, गुरु हैं और भगवान् हैं। ये निर्गुण, निरंजन, निष्क्रिय, निष्कल, निरवद्य? अनिर्देश्य, अचल, कूटस्थ, अव्यक्त तत्व हैं और ये ही दिव्य सौन्दर्य-माधुर्य-सुधा-सार-समुद्र, नित्य नटवर श्यामसुन्दर हैं, एवं ये ही गति, भर्ता, भोक्ता, प्रभु, साक्षी, शरण, सुहृद्, माता, पिता, धाता, पितामह, उपद्रष्टा, अनुमन्ता, परमात्मा और महेश्वर हैं। गीता में जहाँ-जहाँ ‘अहम्’, ‘मम’, ‘मे’,‘माम’, ‘मत्तः’, ‘मयाम्’ पद आये हैं, सब इन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के लिये ही आये हैं। यह श्रीकृष्ण-तत्व ही गीता का प्रतिपाद्य है और इसी की शरणागति का चरम उपदेश गीता में दिया गया है। यही गीता की सर्वगुह्यतम शिक्षा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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