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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता में भगवत्स्मरण
आपकी शंकाओं का उत्तर इस प्रकार है- (1) जिसने जीवन भर भगवान् का स्मरण किया होगा, उसे अन्त समय में अनायास ही भगवान् का स्मरण होगा। जीवन में जहाँ मन अधिक रमता रहा है, अन्तकाल में प्रायः उसी की स्मृति होती है। अतः अन्तकाल में भगवान् का ही स्मरण हो, इसके लिये सम्पूर्ण जीवन में भगवान् के चिन्तन को अनिवार्य बना लेना चाहिये। अन्तकाल में किसी कारणवश वाक्-शक्ति कुण्ठित हो जाय तो भी स्मरण बना रहता है। प्राण जाने की घड़ी में तो सबसे बड़े सहारे की ही याद आती है, अतः उस समय भगवद् भक्त को भगवान् का सहज ही स्मरण हो सकता है। मान लीजिये, प्राण दो दिन बाद निकलें, परंतु बेहोशी पहले ही हो जाय, उस दशा में भी होश के अन्तिम क्षम में जो संस्मरण रहेगा, उसी के अनुसार भावी गति होगी। अतः दो दिन पूर्व होश के अन्तिम क्षम में किया हुआ स्मरण ही अन्तकाल का स्मरण समझा जायगा। (2) जो लोग छोटी अवस्था से चिन्तन न करके बुढ़ापे में चिन्तन प्रारम्भ करते हैं, उनमें से बहुत थोड़े लोग स्मरण के संस्कार को अधिक जाग्रत् कर पाते हैं। अधिकांश लोग जीवन में जहाँ अधिक रमे हैं, उन आसक्तियों को नहीं छोड़ पाते। अतः उनके द्वारा अन्त समय में भगवत्स्मरण बन गया तो ऐसा मानना चाहिये कि उसका कोई पूर्व-पुण्य सहायक हो गया है; अथवा भगवान् की अकारण कृपा बरस गयी है। (3) गीता [1] में शुक्ल मार्ग और कृष्णमार्ग का वर्णन है। इन मार्गों से वे ही जाते हैं, जो उक्त पथों के योग्य होते हैं। शुक्ल मार्ग से गये हुए उपासक ब्रह्म को प्राप्त होते हैं और कृष्णमार्ग से गये हुए सकाम पुण्यकर्म करने वाले जीव चन्द्रलोक (स्वर्ग)-तक जाकर वहाँ के भोग भोगने के बाद यहाँ लौट आते हैं। मान लीजिये, कोई शुक्लमार्ग से यात्रा करने की योग्यता वाला उपासक दक्षिणायन में मर गया तो वह पहले अग्नि के अधिकार में जायगा, अग्नि उसे दिन के अभिमानी देवता के अधिकार में पहुँचा देगा और वह उसको शुक्ल पक्ष के अभिमानी देवता के अधिकार में दे देगा। इसके बाद वह वहीं रुकेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (8/24-25)
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