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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
जाति में जन्म की प्रधानता है
कर्म से जाति मानने वालों को इन पंक्तियों पर विचार करना चाहिये। हम भी कर्म से जाति मानते हैं, परंतु किस प्रकार? इस जन्म में जो कुछ कर्म होता है, उसी के अनुसार अगले जन्म में जाति प्राप्त होगी। इस प्रकार जाति में जन्म की ही प्रधानता सिद्ध होती है, कर्म तो भावी जन्म में कारण मात्र है। यही बात उपनिषदों में भी कही गयी है। ‘छान्दोग्योपनिषद्’-में जीवों की कर्मानुरूप गति का वर्णन करते हुए यह स्पष्ट लिखा गया है कि- ‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनि-मापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरश्वयोनिं वा शूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिं वा।’ [1] ‘उन जीवों में से जो इस लोक में रमणीय आचरण वाले (पुण्यात्मा) होते हैं, वे निश्चय ही उत्तम योनि-ब्राह्मण योनि, क्षत्रिय योनि अथवा वैश्य योनि को प्राप्त करते हैं और जो इस संसार में कपूय(अधम) आचरण वाले (पापात्मा) होते हैं, वे अधमयोनि कुत्ते, सूकर अथवा चाण्डाल की योनि को प्राप्त होते हैं।’ स्मरण रहे, यहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय और चण्डाल आदि सबको ‘योनि’ कहा है। कर्म में अनुसार जाति मानने पर ब्राह्मण आदि की कोई नियत योनि नहीं रह सकती। प्रत्येक मनुष्य भिन्न-भिन्न कर्मों को अपना कर प्रतिदिन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र बनता रहेगा। इसीलिये ‘ब्रह्मणादि वर्णों का विभाग जन्म से मानना चाहिये या कर्म से’-यह प्रश्न करने पर ‘गीता-तत्वविवेचनी’ में कहा गया- ‘यद्यपि जन्म और कर्म-दोनों ही वर्ण के अंग होने के कारण वर्ण की पूर्णता तो दोनों से ही होती है, परंतु प्रधानता जन्म की ही है। इसलिये जन्म से ही ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग मानना चाहिये; क्योंकि इन दोनों में प्रधानता जन्म की ही है। यदि माता-पिता एक वर्ण के हों और किसी प्रकार से भी जन्म में संकरता न आवे तो सहज ही कर्म में भी प्रायः संकरता नहीं आती। परंतु संगदोष, आहारदोष, और दूषित शिक्षा-दीक्षादि कारणों से कर्म में कुछ व्यतिक्रम भी हो जाय तो जन्म से वर्ण मानने पर वर्ण-रक्षा हो सकती है, तथापि कर्म-शुद्धि की कम आवश्यकता नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (5/10/7)
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