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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
ब्रह्मज्ञान, पराभक्ति, भगवान् की लीला
आपका कृपापत्र मिला था। उत्तर लिखने में बहुत देर हो गयी, इसके लिये क्षमा करें। व्यतिरेक और अन्वय-दोनों प्रकार से ही ब्रह्मज्ञान की साधना होती है। आजकल अवश्य ही ऐसी प्रथा-सी हो गयी है कि लोग वेदान्त का अर्थ ही व्यतिरेक-साधना करते हैं। वे नेति-नेति कहकर जगत् को स्वप्न, गन्धर्वनगर, शशश्रंग और रज्जु में सर्प आदि की भाँति सर्वथा असत् बतलाकर सबका अस्वीकार तो करते हैं, परंतु सब कुछ को एकमात्र नित्य सच्चिदानन्दघनस्वरूप मानकर ब्रह्म का स्वीकार नहीं करते। इसीलिये कभी-कभी जगत् का बाध करते-करते ब्रह्म का भी बोध हो जाता है और मनुष्य का चित्त एक जडशून्य भूमिका पर जा पहुँचता है। जगत् वस्तुतः न कभी था, न है, न होगा- यह सत्य है, परंतु इसके साथ यही भी सर्वथा सत्य है कि जगत् के रूप में जो कुछ भी भास रहा है, वह, तथा जिसको भासता है, वह भी ब्रह्म ही है। जगत् को सर्वथा वस्तुशून्य समझना ‘व्यतिरेक’ साधना है और चेतना चेतनात्मक समस्त विश्वम एक चेतन अखण्ड परिपूर्ण ब्रह्म सत्ता का अनुभव करना ‘अन्वय’ साधना। दोनों साधनाओं के समन्वय से जो ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’, ‘नेह नानास्ति किंचन’ तत्व की प्रत्यक्षानुभूति होती है, वही ब्रह्मी स्थिति है। यह श्रीभगवान् का सच्चिदानन्दमय ब्रह्मस्वरूप है। इसके जान लेने पर ही समग्र पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेम-लीला या व्रजलीला के समझने का अधिकार प्राप्त होता है। दिव्य हृदय और दिव्य नेत्रों के बिना व्रजलीला के दर्शन नहीं हो सकते। विविध साधनों के द्वारा हृदय जब समस्त संस्कारों से शून्य होकर शुद्ध सत्व में प्रतिष्ठित हो जाता है और जब सम्पूर्ण विश्व में एक अखण्ड अनन्त समरस सर्वव्यापक सर्वरूप अव्यक्त ब्रह्म की साक्षात् अनुभूति होती है तभी प्रेम की आँखें खुलती हैं, तभी भगवान् के लीला के यथार्थ और पूर्ण दर्शन की योग्यता प्राप्त होती है और तभी प्रेमी भक्त का भगवान् के साथ पूर्णैक्यमय मिलन होता है। यही ज्ञान की परानिष्ठा है। ‘निष्ठा ज्ञानस्य या परा।’ [1] श्रीभगवान् ने स्वयं कहा है |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 18/50)
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