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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवद्भक्ति और दैवी सम्पत्ति
भगवान् के नाम और भगवद् भक्ति की महिमा अनन्त है। आप और हम तो क्षूद्र हैं-महापुरुष भी इनकी महिमा पूरी-पूरी नहीं गा सकते; परंतु भाई साहब! आप जिस ढंग से भक्ति और भगवन्नाम का महात्म्य बतलाते हैं, वह मुझे पसंद नहीं है। मैं तो मानता हूँ भगवन्नाम से पाप का लेश भी नहीं रहता। फिर यह कैसे स्वीकार करूँ कि भगवन्नाम का सहारा लेकर दुष्कर्म करते रहना-जान-बूझकर भी उनसे हटने का प्रयास और अभिलाषा न करना उचित है? मेरी समझ से भगवद् भक्ति के साथ दैवी सम्पत्ति का अनिवार्य संयोग है। कोई भगवद्भक्त भी बने और बेरोक-टोक व्यभिचार और परधन हरण भी करता रहे। घंटे-आध-घंटे कीर्तन कर ले और दिन-रात बिना किसी ग्लानि के, खुशी-खुशी जूए, शराब, परनिन्दा, परदोष दर्शन और दूसरों को ठगने और कष्ट पहुँचाने में बीतें, यह कैसी भक्ति है, कुछ समझने में नहीं आता। यह सत्य है कि इससे अधिक पाप करने वालों को भी भगवन्नाम-कीर्तन और भक्ति करने का अधिकार है। भगवान् का द्वार पापियों के लिये बंद नहीं है तथा भगवन्नाम और भगवद्भक्ति से पापी भी शीघ्र पुण्यात्मा-महात्मा भी बन सकते हैं, परंतु जिनके मन में बुरे कर्मों से जरा भी ग्लानि नहीं और जो इसलिये भगवन्नाम लेते हैं कि उनके पाप ढके रहें या पाप करने में उन्हें सुविधा मिल जाय, उनके लिये बहुत विचारणीय बात है। यह सत्य है कि भगवन्नाम की पाप-नाश करने की शक्ति पापी के पाप करने की शक्ति से कहीं अधिक है, और अन्त में उसके पापों का नाश करके भगवन्नाम उसे तार देगा; परंतु जान-बूझकर पाप करने के लिये ही नाम लेना भगवद् भक्ति का आदर्श क्यों कर माना जा सकता है? मेरा तो यह विश्वास है कि जो लोग भगवान् की सच्ची भक्ति करते हैं, उनमें मन का निग्रह, इन्द्रियों का वश में होना, अहिंसा, सत्य, सेवा, क्षमा, परदुःखकारता, मैत्री, दया आदि गुण क्रियात्मक रूप में प्रत्यक्ष आ जाते हैं और इनके आने पर ही भक्ति आदर्श मानी जाती है। अतएव मेरी तो आपके प्रार्थना है कि आप भक्ति के साथ उसकी चिरसंगिनी-जिसके बिना भक्ति रह नहीं सकती-दैवी सम्पत्ति का भी पूरा आदर करें, तभी भक्ति का यथार्थ विकास होगा और तभी तुरन्त शान्ति मिलेगी। यह याद रखना चाहिये कि भगवद् भक्ति के बिना दैवी सम्पत्ति प्राणहीन है और दैवी सम्पत्ति के बिना भक्ति नहीं होती। इन दोनों का परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। भगवद् भक्त में कैसे गुण होने चाहिये, इसका विशेष विवरण गीता में भगवान् ने बतलाया है। बारहवें अध्याय के 13 वें से 20 वें श्लोक तक देखना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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