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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भोगवाद और आत्मवाद
मस्तिष्क की गुलामी के कारण भारतीय विद्वानों ने अधिकांश में इन तीनों को स्वीकार कर लिया। इसी का फल है कि आज हम भारतीयों की अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने पूर्वज तथा अपने गौरवमय महाभारत-रामायणादि प्राचीन इतिहास, अपने धर्मग्रन्थ-वेद-स्मृति तथा पुराण आदि पर अश्रद्धा और अनास्था बढ़ रही है और इसी से भोगवाद के विष-विस्तार में बड़ी सुविधा हो गयी है। इसी आज हम तमसाच्छन्न होकर सभी कुछ विपरीत देखने, विपरीत सोचने और विपरीत करने में गौरव मान रहे हैं। भगवान् ने गीता में कहा है- अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता। ‘अर्जुन! तमोगुण से आवृत जो बुद्धि अधर्म को धर्म, (अवनति को उन्नति, विनाश को विकास, पतन को उत्थान, पाप को पुण्य इस प्रकार-)सभी अर्थों में विपरीत मानती है, वही तामसी बुद्धि है।’ आज का संसार भोगवाद के विष से जर्जरित होने के कारण तमसाच्छन्न होकर इसी तामसी बुद्धि के द्वारा अपने कर्तव्य का निश्चय करता और तदनुसार चल रहा है। भारतवर्ष भी आत्मविस्मृत होकर इसी तामसी बुद्धि काक आश्रय ले रहा है। भारत ने यदि अपने पूर्वज ऋषि-महर्षि तथा अपनी प्राचीन संस्कृति एवं धर्म-ग्रन्थों पर विश्वास करके अपनी अत्यन्त प्राचीन सर्वागसम्पन्न सर्वागसुन्दर आत्मवादी आदर्श संस्कृति को न अपनाया तो इसका परिणाम उसके लिये तथा समस्त जगत् के लिये भी बहुत बुरा होगा; क्योंकि यही देश तथा यहीं का संस्कृति अनादिकाल से अध्यात्म-प्रधान आत्मवादी रही है। यह आज भी वर्तमान जगत् की स्थिति से असंतुष्ट यूरोप तथा अमेरिका के बहुत-से सज्जन सच्चे शान्ति-सुख की प्राप्ति के लिये आत्मवादी भारतवर्ष की ओर तक रहे हैं और बहुत-से तो यहाँ आ-आकर अध्यात्म की शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं। पर जब भारत ही भोगवादी हो जायगा, तब तो जगत् की सारी आशा ही लुप्त हो जायगी। भारत आज इसी भोगवाद के मोहजाल में फँसा है। भारत के मनीषियों को गम्भीरता पूर्वक इस पर विचार करके किसी प्रकाशमय पथ का पता लगाकर उस पर आरूढ़ होना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (18/32)
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