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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता में भक्ति योग
श्रीमद् भगवद्गीता साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमात्मा प्रभु श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी है। जगत् में इसकी जोड़ी का कोई भी शास्त्र नहीं। सभी श्रेणी के लोग इसमें से अपने-अपने अधिकारानुसार भगवद् प्राप्ति के सुगम साधन प्राप्त कर सकते हैं इसमें सभी मुख्य-मुख्य साधनों का विषद् वर्णन है, परन्तु कोई भी एक-दूसरे का विरोधी नहीं है। सभी परस्पर सहायक हैं। ऐसा सामंजस्य पूर्ण ग्रन्थ केवल गीता ही है। कर्म, भक्ति और ज्ञान-इन तीन प्रधान सिद्धान्तों की जैसी उदार, पूर्ण, निर्मल, उज्जवल, सरल एवं अन्तर और बाह्य लक्षणों से युक्त हृदय स्पर्शी सुन्दर व्यावहारिक व्याख्या इस ग्रन्थ में मिलती है वैसी अन्यत्र कहीं नहीं है। प्रत्येक मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार किसी एक मार्ग पर आरूढ़ होकर अनायास ही अपने चरम लक्ष्य तक पहुँच सकता है। श्रीमद्भगवद् गीता को हम ‘निष्काम कर्म योग युक्त भक्ति प्रधान ज्ञान पूर्ण अध्यात्म शास्त्र’ कह सकते हैं। यह सभी प्रकार के मार्गों में संरक्षक, सहायक, मार्ग दर्शक, प्रकाश दाता और पवित्र पाथेय का प्रत्यक्ष व्यावहारिक काम दे सकता है गीता के प्रत्येक साधन में कुछ ऐसे दोष नाशक प्रयोग बतलाये गये हैं जिनका उपयोग करने से दो समूह नष्ट होकर साधन सर्वथा शुद्ध और उपादेय बन जाता है। इस लिये गीता का कर्म, गीता का ज्ञान, गीता का ध्यान और गीता की भक्ति सभी सर्वथा पाप शून्य दोष रहित, पवित्र और पूर्ण हैं। किसी में भी तनिक पोल की गुंजाइस नहीं। गीता के बारहवें अध्याय का नाम भक्ति योग है, इसमें कुल बीस श्लोक हैं। पहले श्लोक में भक्तवर अर्जुन का प्रश्न है और शेष उन्नीस लोकों में भगवान उसका उत्तर देते हैं। इनमें प्रथम 11 श्लोकों में तो भगवान के व्यक्त (साकार) और अपव्यक्त (निराकार) स्वरूप के उपासकों की उत्तमता का निर्णय किया गया है एवं भगवत् प्राप्ति के कुछ उपाय बतलाये गये हैं। अगले आठ श्लोकों में परमात्मा के परम प्रिय भक्तों के स्वाभाविक लक्षणों का वर्णन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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