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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
आत्मा नहीं मरता, जीव ही जन्मता-मरता दीखता है
जैसे एक अनन्त आकाश है; वह कभी टूटता नहीं; नया बनता नहीं; स्वरूपतः उसमें कुछ नहीं होता; पर उसी आकाश में जैसे अनन्त नगर-ग्राम बसे हैं, उन नगरों, ग्रामों में असंख्य भवन बने हैं, प्रत्येक भवन में अलग-अलग नाम तथा आकार वाले कमरे-कोठरी आदि बने हैं। उन कमरे-कोठरी की दीवारों से घिरे हुए जितने आकाश के अंश हैं, वे एक महान् आकाश की दृष्टि से नित्य आकाश-स्वरूप ही हैं; पर दीवार के घेरे से उतने अंश का नामकरण हो गया है, जैसे मन्दिर, रसोईघर, पूजागृह, पाखाना आदि तथा लम्बाई-चैड़ाई का आकार-रूप बन गया है और समय-समय पर वे दीवारें टूटती हैं, नयी बनती हैं; कमरों के नाम बदल जाते हैं और वास्तव में इतना सब होने पर भी महान् आकाश सदा स्वरूपस्थित तथा निर्लेप है; इसी प्रकार स्वरूपतः एक ही आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। वह शास्त्रों से कटता नहीं, आग से जलता नहीं, जल से भीगता नहीं, वायु से सूखता नहीं। वह सदा अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य है। वही नित्य है, सर्वगत है, घन है, अचल है, सनातन है। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। पर उसी आत्मा में प्रकृति के संयोग से नानात्व आ जाता है और जब तक आत्मा का जितना, जो अंश प्रकृतिस्थ रहता है तब तक उसकी ‘जीव’ संज्ञा है और तब तक वह प्रकृति के गुणों को भोगता है और मरता तथा अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेता हुआ दिखायी पड़ता है। पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुड्क्ते प्रकृतिजान् गुणान्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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