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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सकाम भक्तों और योगक्षेम की व्यवस्था
सकाम भक्तों में तीन तरह के भक्त माने गये हैं-अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु (‘आत्र्तो जिज्ञासुरर्थार्थी’)। इनमें एक तो वह है, जो किसी भी अर्थ की सिद्धि के लिये-धन, जन, मान, यश, भोग, स्वर्ग आदि की प्राप्ति के लिये भगवान् को भजता है; दूसरा वह है, जो प्रारब्धवश किसी संकट में पड़कर उससे त्राण पाने के लिये भगवान् की भक्ति करता है और तीसरा वह है, जो भगवान् की प्राप्ति का सरल और सहज पथ जानने के लिये भगवान् को याद करता है। इन तीनों सकाम भक्तों की सकाम भक्ति को भी तभी पूर्ण समझना चाहिये जबकि वे भगवान् को ही एकमात्र आश्रय मानकर उन्हीं पर निर्भर करें। और तभी उन्हें अनायास फल भी मिलता है। धु्रव अर्थार्थी भक्त थे; वे ज्यों ही भगवान् पर निर्भर हुए, त्यों ही उन्हें उनका इच्छित फल मिल गया। द्रौपदी और गजराज आर्त भक्त थे और जब तक वे दूसरों से त्राण की जरा भी आशा करते रहे, तब तक उनके संकट दूर नहीं हुए; जब एकमात्र भगवान् पर निर्भर करके उनको पुकारा, तब उसी क्षण भगवान् ने स्वयं प्रकट होकर उनके दुःख दूर कर दिये। जिज्ञासु भक्त तो ऐसे बहुत हुए हैं, जो भगवान् पर निर्भर करके भगवत्पे्ररणा से भगवान् के पथ पर सहज ही आरूढ़ हो गये हैं। सकाम भाव की इस निर्भरता के लिये बंदर के बच्चे से तुलना करके संतलोग बिल्ली के बच्चे का दृष्टान्त दिया करते हैं। बंदर का बच्चा स्वयं कूदकर माँ को पकड़ कर उसका स्तनपान करने लगता है। परंतु भूखा बिल्ली का बच्चा माँ की प्रतीक्षा करता हुआअपने स्थान में बैठा रहता है; स्वयं माँ उसकी चिन्ता करती है और उसके पास आकर जहाँ ले जाना होता है, अपने मुँह से उठाकर उसे वहाँ ले जाती है और अपना दूध पिलाकर संतुष्ट करती है। इसी प्रकार जो मनुष्य भी काम की सिद्धि के लिये श्रद्धा-विश्वास पूर्वक भगवत्कृपा की प्रतीक्षा करते हुए भगवान् पर निर्भर करते हैं, उनके काम को भगवान् स्वयं पधारकर पूरा कर देते हैं। नरसी मेहता आदि अनेक भक्तों के उदाहरण इसमें प्रमाण हैं। परंतु जहाँ तक ऐसा सकाम भाव है, वहाँ तक भगवान् पर निर्भरता आंशिक ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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