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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
जगत् का स्वरूप और ब्रह्मज्ञानी के व्यवहार
जगत् वस्तुतः क्या वस्तु है और ब्रह्मज्ञान होने पर ब्रह्मज्ञानी के लिये जगत् क्या रह जाता है-उन दोनों ही प्रश्नों का यथार्थ उत्तर देने की शक्ति मुझमें नहीं है; क्योंकि न तो मैंने जगत् के वास्तविक स्वरूप का अनुभव किया है और न मुझे ब्रह्मज्ञान ही हुआ है। जगत् को कुछ लोग मिथ्या कहते हैं और कुछ लोग भगवत्-रूप! इनमें मुझे भगवद्रूप मानना अधिक अच्छा लगता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी जहाँ-तहाँ जगत् को भगवत्-रूप ही बताया गया है। ‘सब कुछ वासुदेव ही है। मेरे (भगवान् के) सिवा और कुछ भी नहीं है।’ ‘सर्व वासुदेव इति’[1]‘मत्तः परतरं नान्यत् किश्चिदस्ति’ [2]। ब्रह्मज्ञान होने पर जगत् नहीं रहता, ऐसी बात नहीं है; क्यों कि ब्रह्मज्ञान होने के बाद भी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा जगत् में कर्म होते देखे जाते हैं। चाहे अहंकार के अभाव से उनको अकर्म माना जाय- चाहे वे भूजे बीज की भाँति फलोत्पादन न कर सकें; परंतु कर्म तो होते ही हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं जगत् में विधिवत् कार्य किये हैं। राजर्षि जनक ने राज्य-पालन किया। वेदों का विभाग करने वाले भगवान् व्यास और शुकदेव के समान ज्ञानी कौन होगा; परंतु उन्होंने भी महाभारत और पुराणादि ग्रन्थ बनाये और पढ़े-सुनाये। भगवान् शंकराचार्य परम ज्ञानी थे, परंतु जीवन भर धर्मप्रचार का कार्य करते रहे। यदि ब्रह्मज्ञान होने के बाद जगत् का सर्वथा प्रलय हो गया होता तो इन महात्माओं के द्वारा कर्म होना सम्भव नहीं था। हाँ, ब्रह्मज्ञान होने पर ‘जगत् ब्रह्म से भिन्न है’ यह भ्रम अवश्य मिट जाता है। अज्ञानी व्यक्ति जगत् को ब्रह्म से भिन्न देखते हैं और ज्ञानी महात्मा उसे ब्रह्मस्वरूप! जैसे स्वर्ण के एक पिण्ड से ही भाँति-भाँति के गहने बनते हैं, उन सबको स्वर्णरूप में देखना ही यथार्थ देखना है। यदि कोई स्वर्ण को भूलकर गहनों को सोने से अलग देखता है तो वह भ्रम में है-ऐसे ही संसारी प्राणी जगत् को ब्रह्म से अलग देखते हैं, इसी से वे अज्ञानी हैं-भ्रान्त हैं। इसी प्रकार जगत् को ब्रह्म से अभिन्न देखना ही यथार्थ देखना है। ऐसी हालत में जैसे सोने के सब गहनों को सोना समझने पर भी गहने अपने आकार-प्रकार में रहते हैं, चाहे वे टूटते-फूटते और बदलते रहते हों। वैसे ही ब्रह्मज्ञान हो जाने पर जगत् अपने आकार-प्रकार में रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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