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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीतोक्त समग्र ब्रह्म या पुरुषोत्तम
भगवान् ही विश्व गुरु हैं और भगवान् ही वसुदेव पुत्र, देवकीनन्दन, नन्दनन्दन, यशोदालाल, गोपीवल्लभ, मुरलीमनोहर, श्यामसुन्दर, राधारमण, रुक्मिणीपति, व्रजनवयुवराज, व्रजेश्वर, द्वारिकाधीश और व्यास भीष्मादि के द्वारा पूज्य परमेश्वर हैं और वही भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ इतिहास प्रसिद्ध ‘पार्थसखा’ या ‘तोत्त्रवेत्रैकपाणि पार्थयसारथि’ हैं। इस प्रकार श्रीकृष्ण के सर्वातीत और सर्वमय ‘समग्र’ स्वरूप को सम्यक्-रूप से जानकर उनकी जो उपासना होती है, वही श्रीकृष्ण की यथार्थ उपासना है (जानने का अर्थ केवल बुद्धि द्वारा समझ लेना ही नहीं है, उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति होनी चाहिये)। यह श्रीकृष्ण न तो केवल एकदेशीय व्यक्त स्वरूप विशेष ‘वृष्णिवंशी’ वसुदेवसुत ‘वासुदेव’ हैं और न केवल शुद्ध-शुद्ध-मुक्तस्वभाव ‘ब्रह्म’ ही हैं। ये दोनों ही उनकी अभिव्यक्तियाँ हैं। उनको एकदेशीय मानने में भी उनके स्वरूप को अल्प और परिच्छिन्न करना पड़ता है और केवल शुद्ध ब्रह्म मानने से भी शुद्ध ब्रह्म के अतिरिक्त और सब कुछ का कोई स्वरूप निश्चय नहीं होता। माया या मिथ्या कहकर टालने से भी काम नहीं चलता। इसी से यह कहा जाता है कि सब कुछ नहीं है सो नहीं है, पर वह सब (ब्रह्म समेत) भगवान् की ही अभिव्यिक्ति है। सबको लेकर ही भगवान् हैं और वही पुरुषोत्तम हैं। भगवान् स्वयं ही कहते हैं- मत्तः परतरं नान्यत् किच्चिदस्ति धनज्जय। ‘धनंजय! मेरे सिवा और कुछ भी नहीं है, यह समस्त जगत् सूत में सूत की मणियों की भाँति मुझमें ही गुँथा है। जगत् ही क्यों अव्यय, परब्रह्म, अमृत, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक आनन्द का आधार भी मैं ही हूँ।’ सबका समन्वयात्मक यही गीतोक्त ‘समग्र ब्रह्म या पुरुषोत्तम’ का स्वरूप है और वे श्रीकृष्ण हैं। इसीलिये वेदान्त-ज्ञान के उपदेष्टा और ज्ञाता श्रीमधुसूदन सरस्वती कहते हैं- वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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