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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता के अनुसार भगवद्भजन
भगवान् के इस आदेश के अनुसार मनुष्य चाहे जहाँ, चाहे जब अपने ही द्वारा किये जाने वाले उसी समय के कर्मों के द्वारा भगवान् का भजन-पूजन कर सकता है। इसमें किसी स्थान-विशेष, समय-विशेष, स्थिति-विशेष और उपचार-विशेष की आवश्यकता नहीं है। किसी भी वर्णाश्रम का मनुष्य, किसी भी स्थान में, किसी भी स्थिति में सर्वत्र स्थित भगवान् का पूजन कर सकता है। इस पूजन में गन्ध-पुष्प, धूप-दीप आदि की भी आवश्यकता नहीं है। जिस मनुष्य के लिये जो शास्त्रीय कर्म विहित है, उसी के द्वारा वह भगवान् की पूजा कर सकता है। बस, मन का भाव यह होना चाहिये कि ‘मैं जो कुछ कर रहा हूँ, सर्वव्यापी और सर्वाधार भगवान् की पूजा ही कर रहा हूँ, सर्वव्यापी और सर्वाधार भगवान् की पूजा ही कर रहा हूँ।’ फिर सोना-जागना, खाना-पीना, जाना-आना, व्यापार-व्यवसाय करना, यहाँ तक कि शरीर शुद्धि तक के सभी कर्म भगवान् की पूजा के उपकरण बन जायँगे। आप इस प्रकार से हर समय भगवान् की पूजा कर सकते हैं। जिसको भी देखें, जिससे भी बात करें, मन-ही-मन यह निश्चय कर लें कि इस रूप में भगवान् ही आपके सामने स्थित हैं। तदनन्तर उन्हें मन-ही-मन प्रणाम करके उस समय के लिये उसके साथ जिस प्रकार का व्यवहार-बर्ताव करना शास्त्र दृष्टि से विहित हो, उसी प्रकार के व्यवहार-बर्ताव करना शास्त्र दृष्टि से विहित हो, उसी प्रकार के व्यवहार-बर्ताव द्वारा उनकी पूजा करें। फिर, आप अलग समय निकालकर भजन-पूजन न भी कर सकेंगे तो भी कोई हानि नहीं है। इस प्रकार से भगवान् का भजन-पूजन करने लगने पर आपके समस्त कर्म स्वाभाविक ही भगवदर्पण हो जायँगे और आपके चित्त में सदा सहज ही भगवान् की स्मृति भी बनी रहेगी। भगवदर्पण कर्मों का और भगवान् की नित्य स्मृति का फल तो भगवत्-प्राप्ति है ही। भगवान् कहते हैं |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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