महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 58 के अनुसार विदुर और युधिष्ठिर बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर आने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
विदुर और युधिष्ठिर का संवाद
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तबर राजा धृतराष्ट्र के बलपूर्वक भेजने पर विदुरजी अत्यमन्ति वेगशाली, बलवान् और अच्छी प्रकार काबू में किये हुए महान् अश्रवों से जुते रथ पर सवार हो परम बुद्धिमान पाण्डवों के समीप गये महाबुद्धिमान विदुरजी उस मार्ग को तय करके राजा युधिष्ठिर राजधानी में जा पहुँचे और वहाँ द्विजातियों से सम्मानित होकर उन्हों ने नगर में प्रवेश किया। कुबेर के भवन के समान सुशोभित राजमहल में जाकर धर्मात्मा विदुर धर्म पुत्र युधिष्ठिर से मिले। सत्यंवादी महात्माज अजीमढनन्दन अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर ने विदुरजी का यथावत् आदर-सत्कार करके उनसे पुत्रसहित धृतराष्ट्र की कुशल पूछी युधिष्ठिर बोल —विदुरजी! आपका मन प्रसन्न नहीं जान पड़ता। आप कुशल से तो आये हैं ? बूढे़ राजा धृतराष्ट्रु के पुत्र उनके अनुकूल चलते हैं न ? तथा सारी प्रजा उनके वश में है न ? विदुर ने कहा—राजन्! इन्द्र के समान प्रभावशाली महामना राजा धृतराष्ट्र अपने जातिभार्इयों तथा पुत्रोंसहित सकुशल हैं। अपने विनीत पुत्रों से वे प्रसन्न रहते हैं। उनमें शोक का अभाव है। वे महामना अपनी आत्मा में ही अनुराग रखने वाले हैं। कुरुराज धृतराष्ट्र ने पहले तुमसे कुशल और आरोग्य पूछकर यह संदेश दिया है कि वत्स! मैंने तुम्हारी सभा के समान ही एक सभा तैयार करायी है। तुम अपने भाइयों के साथ आकर अपने दुर्योधन आदि भाईयों की इस सभा को देखो। इसमें सभी इष्टज-मित्र मिलकर द्यूतक्रीड़ा करें और मन बहलावें। हम सभी कौरव तुम सब से मिलकर बहुत प्रसन्न् होंगे। महामना राजा धृतराष्ट्र ने वहाँ जो जूए के स्थान बनवाये हैं, उनको और वहाँ जुटकर बैठे हुए धूर्त जुआरियों को तुम देखोगे। राजन् मैं इसीलिये आया हूँ। तुम चलकर उस सभा एवं द्यूतक्रीडा का सेवन करो। युधिष्ठिर ने पूछा —विदुरजी! जूए में झगडा़-फसाद होता है। कौन समझदार मनुष्य जूआ खेलना पसंद करेगा अथवा आप क्या ठीक समझते हैं; हम सब लोग तो आपकी आज्ञा के अनुसार ही चलने वाले हैं। विदुरजी ने कहा —विद्वन्! मैं जानता हूँ, जूआ अनर्थ की जड़ है; इसीलिये मैंने उसे रोकने का प्रयत्न भी किया तथापि राजा धृतराष्ट्र ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, यह सुनकर तुम्हें जो कल्याणकर जान पड़े, वह करो। युधिष्ठिर ने पूछा —विदुरजी! वहाँ राजा धृतराष्ट्र के पुत्रों को छोड़कर दूसरे कौन-कौन धूर्त जुआ खेलने वाले हैं ? यह मैं आपसे पूछता हैूँ। आप उन सबको बताइये, जिनके साथ मिलकर और सैकड़ों की बाजी लगाकर हमें जुआ खेलना पड़ेगा। विदुर ने कहा—राजन्! वहाँ गान्धराज शकुनि है, जो जुए का बहुत बड़ा खिलाड़ी है। वह अपनी इच्छा के अनुसार पासे फेकने में सिद्धहस्त है। उसे द्यूतविद्या के रहस्य का ज्ञान है। उसके सिवा राजा विविंशति, चित्रसेन, राजा सत्यव्रत, पुरूमित्र और जय भी रहेंगे। युधिष्ठिर बोले — तब तो वहाँ बड़े भयंकर, कपटी और धूर्त जुआरी हुटे हुए हैं। विधाता का रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत् दैव के ही अधीन है; स्वतन्त्र नहीं है। बुद्धिमान विदुरजी! मैं राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से जूए में अवश्य चलना चाहता हूँ। पुत्र को पिता सदैव प्रिय है; अत: आपने मुझे जैसा आदेश दिया है, वैसा ही करूँगा। मेरे मन में जूआ खेलने की इच्छा नहीं है। यदि मुझे विजयशील राजा धृतराष्ट्र सभा में न बुलाते, तो मैं शकुनि से कभी जुआ न खेलता; किंतु बुलाने पर मैं कभी पीछे नहीं हटूँगा। यह मेरा सदा का नियम है। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! विदुर से ऐसा कहकर धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरंत ही यात्रा की सारी तैयारी करने के लिये आज्ञा दे दी। फिर सवेरा होने पर उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं, सेवकों तथा द्रौपदी आदि स्त्रियों के साथ हस्तिनापुर की यात्रा की। जैसे उत्कृष्ट तेज सामने आने पर आँख की ज्योति को हर लेता है, उसी प्रकार दैव मनुष्य की बुद्धि को हर लेता है। दैव से ही प्रेरित होकर मनुष्य रस्सी में बँधे हुए की भाँति विधाता के वश में घूमता रहता है। ऐसा कहकर शत्रुदमन राजा युधिष्ठिर जूए के लिये राजा धृतराष्ट्र के उस बुलावे को सहन न करते हुए भी विदुरजी के साथ वहाँ जाने को उद्यत हो गये।[1]
युधिष्ठिर का हस्तिनापुर जाना
बह्रीक द्वारा जोते हुए रथ पर बैठकर शत्रुसूदन पाण्डु-कुमार युधिष्ठिर ने अपने भाईयों के साथ हस्तिनापुर यात्रा प्रारम्भ की। वे अपनी राजलक्ष्मी से दे्दीप्यमान हो रहे थे। उन्होंने ब्राह्मण को आगे करके प्रस्थान किया। सबसे पहले राजा युधिष्ठिर ने अपने सेवकों को हस्तिनापुर की ओर चलने का आदेश दिया। वे नरश्रेष्ठ राजसेवक महाराज की आज्ञा का पालन करने में तत्पर हो गये। तत्पश्चात् महातेजस्वी राजा युधिष्ठिर समस्त सामग्रियों से सुसज्जित हो ब्राह्मणों से स्वस्ति वाचन कराकर पुरोहित धौम्य के साथ राजभवन से बाहर निकले। यात्रा की सफलता के लिये उन्होंने ब्राह्मणों को विधिपूर्वक धन देकर और दूसरों को भी मनोवाछित वस्तुएँ अर्पित करके यात्रा प्रारम्भ की। राजा के बैठने योग्य एक साठ वर्ष का गजराज सब आवश्यक सामग्रियों से सुसज्जित करके लाया गया। वह समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न था। उसकी पीठ पर सोने का सुन्दर हौदा कसा गया था। महाराज युधिष्ठिर (पूर्वोक्त रथ से उतर कर) उस गजराज पर आरूढ़ हो हौदे में बैठे। उस समय वे हार, किरीट तथा अन्य सभी आभूषणों से विभूषित हो अपनी स्वर्णगौर-कान्ति तथा उत्कृष्ट राजोचित शोभा से सुशोभित हो रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो सोने की वेदी पर स्थापित अग्निदेव घी की आहुति से प्रज्वलित हो रहे हों ॥ तदनन्दर हर्ष में भरे हुए मनुष्यों तथा वाहनों के साथ राजा युधिष्ठिर वहाँ से चल पड़े। वे (राज परिवार के लोगों से भरे हुए पूर्वोक्त ) रथ के महान् घोष से समस्त आकाशमण्डल को गुँजाते जा रहे थे। सूत, मागध और बन्दीजन नाना प्रकार की स्तुतियों द्वारा उनके गुण गाते थे। उस समय विशाल सेना से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर अपनी किरणों से आवृत हुए सूर्यदेव की भाँति शोभा पा रहे थे। उनके मस्तकपर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिससे राजा युधिष्ठिर पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति शोभा पाते थे। उनके चारों ओर स्वर्णदण्ड विभूषित चँवर डुलाये जाते थे। भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को मार्ग में बहुतेरे मनुष्य हर्षोल्लास में भरकर ‘महाराज की जय हो’ कहते हुए शुभाशीर्वाद देते थे और वे यथोचितरूप से सिर झुकाकर उन सबको स्वीकार करते थे। उस मार्ग में दूसरे बहुत-से एकाग्रचित्त हो मृगों और पक्षियों-सी आवाज में निरन्तर सुखपूर्वक कुरुराज युधिष्ठिर स्तुति करते थे। जनमेजय! इसी प्रकार जो सैनिक राजा युधिष्ठिर पीछे-पीछे जा रहे थे, उनका कोलाहल भी समूचे आकाश मण्डल को स्तब्ध करके गूँज रहा था। हाथी की पीठ पर बैठे हुए बलवान् भीमसेन राजा के आग-आगे जा रहे थे। उनके दोनों ओर सजे-सजाये दो श्रेष्ठ अश्व थे, जिन पर नकुल और सहदेव बैठे थे। भरतश्रेष्ठ! वे दोनों भाई स्वयं तो अपने रूप सौन्दर्य से सुशोभित थे ही, उस विशाल सेना की भी शोभा बढ़ा रहे थे। शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परम बुद्धिमान श्वेतवाहन अर्जुन अग्निदेव के दिये हुए रथपर बैठकर गाण्डीव धनुष धारण किये महाराज के पीछे-पीछे जा रहे थे। राजन्! कुरुराज युधिष्ठिर सेना के बीच में चल रहे थे। द्रौपदी आदि स्त्रियों अपनी सेविकाओं तथा आवश्यक सामग्रियों के साथ सैकड़ों विचित्र शिबिकाओं (पालकियों) पर आरूढ़ हो बड़ी भारी सेना के साथ महाराज के आगे-आगे जा रही थीं। पाण्डवों वह सेना हाथी-घोड़ो तथा पैदल सैनिकों से भरी-पूरी थी। उसमें बहुत-से रथ भी थे, जिसकी ध्वजाओं पर पताकाएँ फहरा रही थीं। उन सभी रथों में खडग आदि अस्त्र-शस्त्र संगृहित थे। सैनिकों का कोलाहल सब ओर फैल रहा था। राजन्! शंख, दुन्दुभि, ताल, वेणु और वीणा आदि वाद्यों की तुमुल ध्वनि वहाँ गूँज रही थी। उस समय हस्तिनापुर की ओर जाती हुई पाण्डवों की उस सेना की बड़ी शोभा हो रही थी। जनमेजय! कुरुराज युधिष्ठिर अनेक सरोवर, नदी, वन और उपवनों को लाँघते हुए हस्तिनापुर के समीप जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक सुखद एवं समतल प्रदेश में सैनिकों सहित पड़ाव डाल दिया। उसी छावनी में पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर स्वयं भी ठहर गये।[2]
युधिष्ठिर का हस्तिनापुर में सभी से मिलना
राजन् तदनन्तर विदुरजी ने शोकाकुल वाणी में महाराज युधिष्ठिर को वहाँ का सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक बता दिया कि धृतराष्ट्र क्या करना चाहते हैं और इस द्यूतक्रीडा के पीछे क्या रहस्य है ? तब धृतराष्ट्र द्वारा बुलाये हुए काल के समयानुसार धर्मात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर हस्तिनापुर में पहुँचकर धृतराष्ट्र के भवन में गये और उनसे मिले।[2] इसी प्रकार महाराज युधिष्ठिर भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य और अश्रवत्थामा के साथ भी यथायोग्य मिले। तत्पश्चात् पराक्रमी महाबाहु युधिष्ठिर सोमदत्त से मिलकर दुर्योधन, शल्य, शकुनि तथा जो राजा वहाँ पहले से ही आये हुए थे, उन सबसे मिले। फिर वीर दु:शासन, उसके समस्त भाई, राजा जयद्रथ तथा सम्पूर्ण कौरवों से मिल करके भाईयों सहित महाबाहु युधिष्ठिर ने बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र भवन में प्रवेश किया और वहाँ सदा ताराओं से घिरी रहने वाली रोहिणी देवी के समान पुत्रवधुओं के साथ बैठी हुई पतिव्रता गान्धारी देवी को देखा। युधिष्ठिर देखा। गान्धारी को प्रणाम किया और गान्धारी ने भी उन्हें आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया। तत्पश्चात् उन्होंने अपने बूढे़ चाचा प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्र-का पुन: दर्शन किया। राजा धृतराष्ट्र ने कुरुकुल को आनन्दित करने वाले युधिष्ठिर तथा भीमसेन आदि अन्य चारों पाण्डवों का मस्तक सूँघा। जनमेजय! उन पुरुषश्रेष्ठ प्रियदर्शन पाण्डवों को आये देख कौरवों को बड़ा हर्ष हुआ। तत्पश्चात् धृतराष्ट्र की आज्ञा ले पाण्डवों ने रत्नमय गृहों में प्रवेश किया। दु:शला आदि स्त्रियों ने वहाँ आये हुए उन सब को देखा। द्रुपदकुमारी की प्रज्वलित अग्नि के समान उत्तम समृद्धि देखकर धृतराष्ट्र की पुत्रवधुएँ अधिक प्रसन्न नहीं हुई। तदनन्तर वे नरश्रेष्ठ पाण्डव द्रौपदी आदि अपनी स्त्रियों से बातचीत करके पहले व्यायाम एवं केश-प्रसाधन आदि कार्य किया। तदनन्तर नित्यकर्म करके सब ने अपने को दिव्य चन्दन आदि से विभूषित किया। तत्पश्चात् मन में कल्याण की भावना रखने वाले पाण्डव ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर मनोनुकूल भोजन करने के पश्चात् शयन गृह में गये। वहाँ स्त्रियों द्वारा अपने सुयश का गान सुनते हुए वे कुरुकुल के श्रेष्ठ पुरुष सो गये। उनकी यह पुण्यमयी रात्रि रति-बिलासपूर्वक समाप्त हुई। प्रात: काल बन्दीजनों के द्वारा स्तुति सुनते हुए पूर्ण विश्राम के पश्चात् उन्होंने निद्रा का त्याग किया। इस प्रकार सुखपूर्वक रात बिताकर वे प्रात:काल उठे और संध्योपासनादि नित्यकर्म करने के अनन्तर उस रमणीय सभा में गये। जुआरियों ने उनका अभिनन्दन किया।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 58 श्लोक 1-19
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 58 श्लोक 20-21
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 58 श्लोक 22-38
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