महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
83.अभिमंत्रित कवच
उधर हस्तिनापुर में महाराज धृतराष्ट्र ने संजय से जब अर्जुन की विजयों का हाल सुना तो व्याकुल होकर कहने लगे- "संजय, जिस समय संधि की बातचीत करने श्रीकृष्ण हस्तिनापुर आये हुए थे, उसी समय मैंने दुर्योधन को सचेत किया था और कहा था कि संधि करने का यह अच्छा समय है। इसे हाथ से न जाने दो। अपने भाइयों से मेल कर लो। श्रीकृष्ण हमारी ही भलाई के लिये आये हैं। उनकी बातों को ठुकराना ठीक नहीं। कितना समझाया था उसे! पर दुर्योधन ने मेरी एक न सुनी। दु:शासन और कर्ण की ही बात उसे ठीक जंची। काल का उकसाया हुआ वह विनाश-गर्त में गिरा हुआ है। फिर अकेले मैंने ही क्या; द्रोण, भीष्म, कृप सभी ने उसे समझाया कि युद्ध करने से कोई लाभ नहीं है। किंतु उस मूर्ख ने किसी की न सुनी। लोभ से उसकी बुद्धि फिर चुकी थी, मन कुविचारों से भर गया था। क्रोध का ही उसके मन पर राज था। ऐसा न होता तो युद्ध की बला मोल ही क्यों लेता?" यह कह धृतराष्ट्र ने ठण्डी सांस ली। यह सुन संजय बोला—"राजन! अब पछताने से क्या होता है? आपका शोक करना वैसा ही है जैसे पानी सूख जाने पर बांध लगाना। चाहिए तो यह था कि कुंती -पुत्रों को जुए का निमंत्रण ही न देते। आपने तब क्यों नहीं रोका। यदि युधिष्ठिर को पांसा खेलने से रोकते तो आज यह दु:ख क्योंकर होता? पिता के नाते आपका कर्तव्य था कि पुत्र को दबाकर रखते। यदि आपने ऐसा किया होता तो इस दारुण दु:ख से बच गये होते। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ होते हुए भी आपने अपने विवेक से काम नहीं लिया; बल्कि कर्ण और शकुनि की मूर्खता भरी सलाह मान ली। इस कारण आप श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर द्रोणादि की आंखों में गिर चुके हैं। अब आपके प्रति उनकी वह श्रद्धा नहीं रही जो पहले थी। श्रीकृष्ण ने आपके बारे में यह बात जान ली कि धार्मिकता आपकी बातों तक ही सीमित है। आपके मन में तो लोभ का निवास है। अत: राजन, अब अपने पुत्रों की निंदा न कीजिए। इसमें दोषी तो आप ही हैं। अब तो आपके पुत्र क्षत्रियोचित धर्म के अनुसार भरसक अपनी चेष्टा कर ही रहे हैं। जान की परवाह न करके वे लड़ रहे हैं। जिस युद्ध का संचालन, अर्जुन, श्रीकृष्ण, सात्यकि, भीम आदि महारथी कर रहे हों, उसमें आपके लड़कों की एक नहीं चल सकती है। उन वीरों के आगे वे टिक नहीं सकते। पर फिर भी जितना उनसे बन पड़ता है उतना प्रयत्न तो आपके पुत्र कर ही रहे हैं। अब उनकी निंदा करना उचित नहीं है।" शोक से व्याकुल धृतराष्ट्र भारी आवाज में बोले- "भैया संजय, मैं भी मानता हूँ कि तुमने जो कहा है वह बिल्कुल ठीक है। होनी को भला कौन टाल सकता है? तो बताओ फिर क्या हुआ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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