महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
106.धर्मपुत्र युधिष्ठिर
उनको ऐसा मालूम होने लगा मानो जो आवाजें सुनाई दे रही हैं वे उनकी परिचित आवाजें हैं। उन्होंने शोकातुर स्वर में पूछा- "कौन हो तुम लोग? यहाँ कैसे आये?" कोई स्वर बोल उठा- "मैं कर्ण" और किसी ने कहा- "मै हूँ भीमसेन।" तीसरे ने कहा- "मैं अर्जुन हूँ।" ऐसे ही करुण स्वर में और एक पुकार सुनाई दी- "मैं द्रौपदी हूँ।" इस पर चारों ओर से कई स्वर पुकार उठे, "मैं नकुल हूँ।" "मैं सहदेव हूँ।" "हम द्रौपदी के पुत्र हैं।" शोक-विह्वल युधिष्ठिर के लिये यह वेदना असह्य हो उठी। वह क्षोभ और ग्लानि के मारे आपे से बाहर हो उठे- 'मेरे इन आत्मीय जनों ने कौन-सा पाप किया जो ये नरक में पड़े यह दारुण यातना सह रहे हैं और धृतराष्ट्र के पुत्रों ने ऐसा कौन-सा कमाया जो देवेन्द्र की-सी शान के साथ स्वर्ग में सुख भोग रहे हैं? कहीं मैं सो तो नहीं रहा हूं? मूर्च्छित अवस्था में तो नहीं हूं? या यह कोई स्वप्न है?' यह सोचते-सोचते युधिष्ठिर ईश्वरीय न्याय, धर्म एवं देवताओं की मन-ही-मन निन्दा करने लगे। अपने साथ आये देवदूत से वह बोले- "जिनके तुम दूत हो, उनके पास लौट जाओ, उनसे कहो कि मैं यहाँ से वापस नहीं जाऊंगा, यहीं रहूंगा। मेरे कारण ही तो मेरे प्रिय भाई और द्रौपदी यहाँ इस तरह नरक में पड़े दारुण यातना सह रहे हैं। इसलिये मैं भी अपने आत्मीयों के साथ यहीं रहना चाहता हूँ।" एक मुहूर्त तक युधिष्ठिर उसी प्रकार वहाँ नरक में खड़े रहे। इसके बाद देवेन्द्र और धर्मदेवता उसी स्थान पर आये जहाँ युधिष्ठिर खड़े रहे। उनके आगमन के साथ प्रकाश भी फैल गया। न वह अंधेरा रहा, न वे भयानक दृश्य ही रहे। पापियों की विषम वेदना का हृदय-विदारक दृश्य भी गायब हो गया। पवित्र सुवास से भरी ठंडी बयार चलने लगी। धर्मदेव ने अपने पुत्र से कहा- "बुद्धिमानों में श्रेष्ठ! हमने तीसरी बार तुम्हारी परीक्षा ली थी। अपने भाईयों के हित नरक में पड़े रहने के लिये भी तुम तैयार थे। इससे हमें बहुत प्रसन्नता हुई। भूमिपाल राजाओं के लिये नरक की यातना अवश्य देखनी चाहिए। यही कारण था कि तुम्हें भी एक मुहूर्त के लिये यह दारुण दुःख भोगना पड़ा। यशस्वी वीर अर्जुन, प्रिय भाई भीम, सत्यवती कर्ण आदि तुम्हारे सारे बंधुजनों में से कोई भी नरक नहीं पहुँचा। यह तो तुम्हारी परीक्षा लेने के लिये रची गयी माया थी। वास्तव में यही देवलोक है। वह देखो! तीनों लोकों में विचरण करने वाले देवर्षि नारद विराजमान हैं। तुम दुःखी न होओ।" युधिष्ठिर को यह सब देखकर बड़ा सुख हुआ और उन्होंने मानव-शरीर त्यागकर दैवीय शरीर प्राप्त किया। शरीर के साथ-साथ द्वेष, वैर-विरोध, मानवी दुर्बलताओं से भी निवृत्त होकर धर्मराज युधिष्ठिर पूर्णरूप से पवित्र बन गये। बड़े भाई कर्ण एवं छोटे भाइयों को, धृतराष्ट्र के पुत्रों के साथ-साथ क्रोधरहित दैवीय स्थिति में देवताओं एवं ऋषि-मुनियों से पूजित होकर सुखपूर्वक रहते देखकर युधिष्ठिर को शांति प्राप्त हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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