महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
99.ईर्ष्या
पितामह भीष्म को जलांजलि देने के बाद जब युधिष्ठिर शोकमग्न हो गये तो व्यास जी ने उन्हें शांत करने के लिए एक कथा सुनाई- कोई चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, कितना ही विवेकशील क्यों न हो, ईर्ष्या उसका पतन कर देती है। ईर्ष्या से लोग अपमानित हो जाते हैं। बृहस्पति देवताओं के आचार्य थे। सभी वेदों तथा शास्त्रों के ज्ञाता थे और बहुत बड़े विद्वान थे। पर उनको भी ईर्ष्यावश अपमानित होना पड़ा था। बृहस्पति के एक भाई थे जिनका नाम था संवर्त। वह बड़े विद्वान और सज्जन थे। इस कारण बृहस्पति को उनसे ईर्ष्या होने लगी। सज्जनों से लोग उनकी सज्जनता के कारण ही जलते हैं, यह बात कुछ विलक्षण मालूम होने पर भी सच है। अपनी ईर्ष्या के कारण बृहस्पति ने संवर्त को कई तरह की तकलीफें दीं। यहाँ तक कि संवर्त तंग आकर घर से निकल भागे और पागलों का-सा बाना धारण करके गांव-गांव घूमने-भटकने लगे। उन्हीं दिनों इक्ष्वाकु वंश के मरुत नाम के राजा ने महादेव जी को अपनी कठोर तपस्या से प्रसन्न करके उनके वरदान से हिमालय की किसी चोटी पर से सोने की राशि प्राप्त कर ली और उसको लेकर एक महायज्ञ करने का आयोजन किया। उसने देवगुरु बृहस्पति से यज्ञ कराने की प्रार्थना की। पर बृहस्पति को भय हुआ कि इतना भारी यज्ञ करके राजा मरुत कहीं देवराज से अधिक यश प्राप्त न कर लें। इस कारण उन्होंने मरुत को यज्ञ कराने से इनकार कर दिया राजा मरुत इससे निराश तो हुए पर उनको बृहस्पति के भाई संवर्त का पता लग गया और उन्होंने उनसे यज्ञ की पुरोहिताई करने की प्रार्थना की। पहले तो संवर्त ने बृहस्पति के भय के कारण इंकार किया पर राजा के बहुत आग्रह करने पर राजी हो गये। बृहस्पति को जब यह मालूम हुआ कि संवर्त राजा मरुत का यज्ञ कराने वाले है तो उनकी ईर्ष्या और भी बढ़ गई। ईर्ष्या की आग उनके मन में इस प्रकार प्रबल हो उठी कि वह उससे दिन-पर-दिन दुबले होने लगे। उनकी देह की कांति फीकी पड़ गई और उनकी दयनीय दशा हो गई। आचार्य की यह दशा देखकर देवराज बहुत चिंतित हुए। उन्होंने बृहस्पति को बुलाया और उनका आदर-सत्कार करके कुशल पूछी और बोले- "आचार्य! आप दुबले क्यों हो रहे हैं? नींद तो आती है न? सेवक लोग आपकी सेवा- टहल तो ठीक से कर रहे हैं न? देवता लोग आपका यथोचित आदर तो कर रहे हैं न? कहीं किसी से कोई अपराध तो नहीं हुआ?" बृहस्पति ने उत्तर दिया- "देवराज! कोमल शैय्या पर आराम से सोया करता हूँ। सेवक लोग प्रेमपूर्वक सेवा-टहल कर रहे हैं। देवताओं के व्यवहार में भी कोई अन्तर नहीं आया है।" बस वह इतना ही कह सके, आगे उनसे कुछ न बोला गया। दुःख के कारण उनका गला रुंध गया। देवगुरु का यह हाल देखकर देवराज का जी भर आया। स्नेहपूर्वक पूछा- "गुरुदेव, क्या बात है जो आप इतने व्यथित हो रहे हैं? आपका रंग फीका पड़ गया है और आप दुबले भी बहुत हो गये हैं। आखिर बात क्या है?" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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