महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
104.तीनों वृद्धों का अवसान
युधिष्ठिर से वन में जाने की अनुमति पाकर धृतराष्ट्र गांधारी के साथ अपने भवन में लौट आये और अनशन-व्रत समाप्त किया। गांधारी और कुंती दोनों ने साथ-साथ बैठकर भोजन किया। धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को अपने पास बिठा लिया और प्रेम के साथ आशीर्वाद दिया। उसके बाद वृद्ध राजा धृतराष्ट्र उठे और गांधारी के कंधे पर हाथ रखकर लाठी टेकते हुए वन के लिये रवाना हुए। माता कुंती भी उनके साथ रवाना हुईं। अपने व्रत के कारण पतिव्रता गांधारी ने अपनी आंखों पर पट्टी बांधी हुई थी। इसीलिये वह कुंती देवी के कंधे पर हाथ रखे रास्ता टटोलती हुई जाने लगीं और इस तरह तीनों वृद्ध राज-कुटुम्बी राजधानी की सीमा पार कर वन की ओर चले। देवी कुन्ती ने गांधारी की सेवा-टहल करने के लिये उनके साथ वन जाने का निश्चय कर लिया था। जाते समय वह युधिष्ठिर से बोली- "बेटा, सहदेव से कभी नाराज न होना। वीरोचित रीति से लड़कर स्वर्ग सिधारे हुए भाई कर्ण का सदा स्नेह के साथ स्मरण करते रहना। यह मेरा ही अपराध था कि मैंने तुम लोगों से उसका वास्तविक परिचय छिपाये रखा। द्रौपदी की प्रेम के साथ रक्षा करते रहना। इस बात का ख्याल रखना कि भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को किसी तरह का दुःख न पहुँचने पावे। सारे कुटुम्ब की देखभाल करने का भार अब तुम्हारें ही कन्धों पर हैं।" धर्मराज समझ रहे थे कि माता कुंती गांधारी को थोड़ी दूर तक विदा करने के लिये साथ जा रही हैं, इसीलिये कुंती की ये बातें सुनकर वह तो सन्न रह गये। उनसे कुछ कहते न बना और बड़ी देर तक अवाक से खड़े रहे। संभलकर बोले- "मां, तुम वन में क्यों जा रही हो? तुम्हारा जाना तो ठीक नहीं है। तुम्हीं ने आशीर्वाद देकर युद्ध के लिये भेजा था। अब तुम्हीं हमें छोड़कर वन को जाने लगीं। यह ठीक नहीं।" इतना कहते-कहते युधिष्ठिर का गला भर आया। किन्तु उनके आग्रह करने पर भी कुंती अपने निश्चय पर अटल रहीं। वह बोलीं- "बेटा, अधीर न होओ। मैं उस लोक में जाना चाहती हूँ जहाँ मेरे पति निवास करते होंगे। मैं बहन गांधारी की सेवा-टहल करती हुई तपस्या करूंगी और समय आने पर शरीर त्याग करके तुम्हारे पिता के पास पहुँच जाऊंगी। बेटा, अब तुम लोग नगर को वापस जाओ। न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करते रहो और तुम्हारी बुद्धि सदा धर्म पर अटल रहे।" पुत्रों को इस प्रकार आशीर्वाद देकर कुंती धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ वन को चलीं। युधिष्ठिर अवाक-से खड़े होकर देखते रहे। धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती ने तीन वर्ष तक वन में तपस्वियों का-सा जीवन व्यतीत किया। एक दिन धृतराष्ट्र स्नान-पूजा करके आश्रम लौटे ही थे कि जंगल में एकाएक आग भड़क उठी, हवा तेज चल रही थी, इसलिये शीघ्र ही आग सारे जंगल में फैल गई। हिरन, जंगली-सूअर आदि जानवरों के झुंड-के-झुंड भयभीत होकर जलाशय की तरफ भागने लगे। इस समय संजय भी उनके साथ था। धृतराष्ट्र ने उसको कहीं भी भाग कर अपने प्राण बचाने का आग्रह किया और सती गांधारी और देवी कुंती के साथ वह पूरब की ओर मुख करके योग-समाधि में बैठ गये और उसी स्थिति में उन तीनों ने उस दावानल में अपने शरीर की आहुति दे दी। धृतराष्ट्र का प्राणसखा संजय, जो उनकी आंखों और प्राणों के समान उनका सहारा था, उनके देहावसान के बाद संन्यास ग्रहण करके हिमालय में तप करने चला गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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