महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
77.बारहवां दिन
पहले ही दिन युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने की चेष्टा के विफल हो जाने पर आचार्य द्रोण दुर्योधन से कहने लगे- "राजन! अर्जुन के पास रहने पर युधिष्ठिर का पकड़ना असंभव है। अपनी तरफ से जो-कुछ करना है वह मैं करूंगा। यदि कोई उपाय करके अर्जुन को युधिष्ठिर से अलग करके कहीं दूर हटा दिया जाये तो मैं व्यूह तोड़कर पास पहुँच जाऊंगा और यदि वह मैदान में डटा रहा तो निश्चय ही उसे कैद करके ले आऊंगा और युधिष्ठिर भाग खड़ा हुआ तो वह भी हमारी जीत ही मानी जायेगी।" द्रोणाचार्य की ये बातें कौरवों के मित्र त्रिगर्त-नरेश सुशर्म से सुन लीं। उसने अपने भाइयों के साथ मिलकर मंत्रणा की कि अर्जुन को युधिष्ठिर से अलग हटाने का कोई उपाय किया जा सकता है? सबने अंत में यही निश्चय किया कि संशप्तक-व्रत धारण करके अर्जुन को युद्ध के लिये ललकारा जाये और लड़ते-लड़ते उसे युधिष्ठिर से दूर हटाकर ले जाया जाय। यह निश्चय करके उन्होंने एक भारी सेना इकट्ठी की और नियमानुसार संशप्तक-व्रत की दीक्षा ली। उसने घास के बने वस्त्र धारण किये। अग्नि की पूजा की और फिर शपथ खाई कि हम लोग युद्ध में धनंजय का वध किये बिना नहीं लौटेंगे। यदि भय के कारण पीठ दिखाकर भाग आए तो हमें महापाप करने का दोष प्राप्त हो; हम प्राणों का उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहेंगे। यह शपथ लेने के बाद संशप्तकों ने वे सब दान-पुण्य किये, जो मरणासन्न व्यक्तियों से कराये जाते हैं और फिर वे युद्ध-क्षेत्र में दक्षिण की ओर मुख करके कूद पड़े और अर्जुन को युद्ध के लिये ललकारा। संशप्तक-व्रत लिये हुए त्रिगर्त-देश के वीरों की इस टोली को कौरव सेना का 'आत्मघाती-दल' समझा जा सकता है। आजकल की लड़ाईयों में भी यह प्रणाली प्रचलित है, जिसके अनुसार कोई दल-विशेष या व्यक्ति-विशेष किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिये कटिबद्ध होकर निकलते हैं और कृतकार्य हुए बिना जीवित नहीं लौटते। अंग्रेजी में ऐसे वीरों की टोली को सुसाइड स्क्वैड[1] कहते हैं। संशप्तक-व्रत-धारी त्रिगर्त वीरों ने अर्जुन को नाम ले-लेकर पुकारा और उसे युद्ध के लिये चुनौती दी। अर्जुन ने युधिष्ठिर से कहा- "राजन! देखिये, ये लोग संशप्तक-व्रत लेकर मुझे ललकारने पर युद्ध में जरूर जाऊंगा। राजा सुशर्म और उसके साथी मुझे युद्ध के लिये ललकार रहे हैं। इसलिये मैं तो जा रहा हूँ और उनका सर्वनाश करके ही लौटूँगा। आप मुझे आज्ञा दीजिए।" युधिष्ठिर ने जब यह देखा तो बोले- "भैया, आचार्य द्रोण का इरादा तो तुम्हें मालूम ही है। उन्होंने मुझे जीवित पकड़ ले जाने का दुर्योधन को वचन दिया है। तुम तो जानते ही हो कि द्रोणाचार्य बड़े बली हैं, शूर हैं, कष्ट-सहिष्णु हैं, शस्त्र विद्या के पारंगत हैं और अपनी प्रतिज्ञा के लिये पूर्ण प्रयत्नशील हैं। उनके प्रण और उनके सामर्थ्य को ध्यान में रखकर जो तुम्हें उचित लगे, वह करो। यही मेरा कहना है।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ suicide squad
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