महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
25.द्रौपदी की व्यथा
आज्ञा पाकर प्रातिकामी रनवास में गया और द्रौपदी से बोला- "द्रुपदराज की पुत्री! चौसर के खेल में युधिष्ठिर आपको दांव में हार बैठे हैं। आप अब राजा दुर्योधन के अधीन हो गई हैं। राजा की आज्ञा है कि अब आपको धृतराष्ट्र के महल में दासी का काम करना है। मैं आपको ले जाने के लिए आया हूँ।" राजसूय यज्ञ करके राजाधिराज की पदवी जिन्होंने प्राप्त कर ली थी, उन सम्राट युधिष्ठिर की पटरानी द्रौपदी, प्रातिकामी की इस अनहोनी-सी बात को सुनकर भौंचक्की-सी रह गई! पर जरा संभलकर बोली- "प्रातिकामी, यह मैं क्या सुन रही हूँ। अपनी ही राजमहिषी को किसी राजकुमार ने दांव पर लगाया है? बाजी लगाने के लिए महाराज युधिष्ठिर के पास क्या और कोई चीज नहीं रही थी।" प्रातिकामी ने बड़ी नम्रता से समझाते हुए कहा- "युधिष्ठिर के पास कोई चीज नहीं रह गई थी।" और सारथी ने जुए के खेल में जो कुछ हुआ था उसका सारा हाल कह सुनाया। प्रातिकामी की बात सुनकर द्रौपदी अचेत-सी रह गई। उसे ऐसा लगा मानो उसका कलेजा फट जायेगा। फिर भी वह क्षत्रिय स्त्री थी, जल्दी ही उसने अपने को संभाल लिया। क्रोध के मारे उसकी सुन्दर आंखें लाल हो उठीं, मानो आग के अंगारे हों। वह प्रातिकामी से बोली- "रथवान! जाकर उन हारने वाले जुए के खिलाड़ी से पूछो कि पहले वह अपने को हारे थे या मुझे? सारी सभा में यह प्रश्न उनसे करना और जो उत्तर मिले वह मुझे आकर बताओ। उसके बाद मुझे ले जाना।" प्रातिकामी ने जाकर भरी सभा के सामने युधिष्ठिर से वही प्रश्न किया जो द्रौपदी ने उसे बताया था। प्रश्न सुनकर युधिष्ठिर अवाक रह गये! उनसे कोई उत्तर देते न बना। इस पर दुर्योधन ने प्रातिकामी से कहा- "द्रौपदी से जाकर कह दो कि वह स्वयं ही आकर पति से यह प्रश्न कर ले। तुम उसे शीघ्र यहाँ ले आओ।" प्रातिकामी दुबारा रनवास में गया और द्रौपदी के आगे झुककर बड़ी नम्रता से बोला- "राजकुमारी! नीच दुर्योधन की आज्ञा है कि आप सभा में आकर स्वयं ही युधिष्ठिर से प्रश्न कर लें।" द्रौपदी ने कहा- "नहीं, मैं वहाँ नहीं जाऊंगी। अगर युधिष्ठिर जवाब नहीं देते तो सभा में जो सज्जन विद्यमान हैं, उन सबको तुम मेरा प्रश्न जाकर सुनाओ और उसका उत्तर आकर मुझे बताओ।" प्रातिकामी लौटकर फिर सभा में गया और सभासदों को द्रौपदी का प्रश्न सुनाया। यह सुनकर दुर्योधन झल्ला उठा। अपने भाई दु:शासन से बोला- "दु:शासन, यह सारथी भीमसेन से डरता मालूम होता है। तुम्हीं जाकर उस घमंडी औरत को ले आओ।" दुरात्मा दु:शासन के लिए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी। खुशी-खुशी वह द्रौपदी के रनवास की ओर चल दिया। शिष्टता को ताक पर रखकर वह निर्लज्ज सीधा द्रौपदी के कमरे में घुस गया और बोला- "सुन्दरी आओ! अब नाहक देर क्यों कर रही हो? हमने तुम्हें जीत लिया है। अब शर्म छोड़ो और कौरवों की बनकर रहो! हमने कुछ अन्याय तो किया नहीं। खेल में न्यायोचित ढंग से तुम्हें प्राप्त किया है। सभा में चलो! भाई बुलाते हैं।" कहते कहते बेशर्म दु:शासन ने द्रौपदी का कोमल हाथ पकड़कर खींचना चाहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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