महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
102.पांडवों का धृतराष्ट्र के प्रति बर्ताव
किसी भी वस्तु का लोभ लोगों को तभी तक रहता है जब तक कि वह प्राप्त नहीं हो जाती। ज्योंही इच्छित वस्तु प्राप्त हो जाती है त्योंही उसका आकर्षण जाता रहता है। यही नहीं बल्कि नई व्यथाएं और विपदाएं भी आ घेरती हैं। यह बात ठीक है कि युद्ध करना और शत्रुओं को दण्ड देना क्षत्रियों का धर्म होता है, परन्तु फिर भी अपने ही भाईयों व रिश्तेदारों को मारने पर जो राज्य या पद प्राप्त हो, उससे कौन-से सुख की आशा की जा सकती है? अर्जुन ने युद्ध शुरू होने से पहले श्रीकृष्ण से यही कहकर अपनी व्यथा प्रकट की थी। यद्यपि श्रीकृष्ण ने इस शंका का समाधान करते हुए कर्मयोग एवं कर्तव्य-पालन का उपदेश दिया था, तो भी अर्जुन ने शंका उठाई थी, वह कुछ अंशों में ठीक ही थी-निरर्थक नहीं थी। कौरवों पर विजय पा लेने के बाद सारे राज्य पर पांडवों का एकछत्र अधिकार हो गया और उन्होंने कर्तव्य समझकर राज्य-काज का भार भी संभाल लिया। परन्तु फिर भी जिस संतोष और सुख की उन्हें आशा थी वह प्राप्त नहीं हुआ। राजा जनमेजय ने पूछा कि विजय पाकर और राज्य सत्ता प्राप्त करने पर पांडवों ने महाराज धृतराष्ट्र के साथ कैसा व्यवहार किया? इस प्रश्न के उत्तर में वैशंपायन मुनि कथा जारी रखते हुए कहने लगे। शोकातुर धृतराष्ट्र को पांडव उचित गौरव अवश्य दिया करते थे। वे राजकाज में भी उनकी सलाह लिया करते थे। उन्हीं की अनुमति से राजाधिराज युधिष्ठिर के नेतृत्व में पांडव राज करते थे।गांधारी, जो अपने सौ पुत्रों को एक साथ गंवा बैठी थी, ऐसा अनुभव करती थी, मानो स्वप्न में मिला धन नींद टूटते ही खो गया हो। देवी कुन्ती दुखियारी गांधारी की बड़ी श्रद्धा और स्नेह के साथ सेवा करती थी। द्रौपदी भी उन दोनों वृद्धाओं की समान रूप से सेवा-सुश्रूषा किया करती थी। युधिष्ठिर ने वृद्ध धृतराष्ट्र के आराम का भी हर तरह से आयोजन किया था। धृतराष्ट्र के भवन में कोमल शैय्या, सुखद आसन आदि का प्रबन्ध था और कीमती गहने-कपड़े आदि भी पर्याप्त रूप में रहते थे। धृतराष्ट्र के भोजन के लिये विविध पकवान बनते थे। कृपाचार्य भी वृद्ध राजा के साथी बनकर उन्हीं के भवन में रहा करते थे। भगवान व्यास भी अक्सर आया-जाया करते थे और सुन्दर सूक्तियों-भरी आख्यायिकाएं सुनाया करते थे, जो राजा के व्यथित हृदय पर शीतल लेप का-सा प्रभाव करती थीं। राजकाज के बारे में युधिष्ठिर धृतराष्ट्र से बराबर सलाह लिया करते थे और शासन संबंधी सारा काम ढंग से करते थे जिससे प्रतीत होता था कि धृतराष्ट्र ही की आज्ञा से सब काम होता है। महाराज युधिष्ठिर ऐसी कोई बात नहीं छेड़ते थे जिससे वृद्ध धृतराष्ट्र के मन को चोट पहुँचने की आशंका हो। देश-विदेश से आने वाले राजा लोग महाराज धृतराष्ट्र का वही सम्मान करते थे जैसे पहले किया करते थे। रनिवास की स्त्रियां गांधारी की सेवा-सुश्रूषा में जरा भी त्रुटि नहीं होने देती थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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