महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
18.सारंग के बच्चे
पशु-पक्षियों में भी मनुष्य जैसे व्यवहार का आरोप करना पौराणिक आख्यायिकाओं की एक बड़ी खूबी है। पुराणों के पशु-पक्षी भी मनुष्य की-सी बोली बोलते हैं और लौकिक न्याय एवं दार्शनिक सिद्धान्त तक के उपदेश देने लगते हैं; परन्तु साथ ही हर प्राणी के अपने स्वभाव की भी झाँकी उसमें स्थान-स्थान पर पायी जाती है। स्वाभाविकता एवं कल्पना का यह सुन्दर सम्मिश्रण पौराणिक साहित्य की एक खास विशेषता है। खांडवप्रस्थ के खण्डहरों पर पाण्डवों ने नये-नये नगर तथा गाँव बसाये और अपने राज्य की नींव डाली। पुरु-वंश की पुरानी राजधानी खांडवप्रस्थ अब तक भयानक वन में परिवर्तित हो चुकी थी। हिंसक जन्तुओं तथा पक्षियों ने उसे अपना निवास-स्थान बना लिया था। कितने ही दुष्टों एवं डाकुओं ने उस वन को अपना अड्डा बनाया हुआ था और वे निर्दोष लोगों को पीड़ा पहुँचाते रहते थे। कृष्ण और अर्जुन ने यह हाल देखा तो निश्चय किया कि इस जंगल को जला डालें और फिर नया नगर बसावें। इस वन के एक पेड़ पर जरिता नामक एक सारंग चिड़िया अपने चार बच्चों के साथ रहती थी। बच्चे अभी नन्हें-नन्हें से थे। उनके पर तक नहीं उगे थे। जरिता और उसके बच्चों को इस तरह छोड़कर उसका नर किसी दूसरी सारंग चिड़िया के साथ घूमता-फिरता था। बेचारी जरिता अपने बच्चों के लिये कहीं से चुग्गा लाकर देती और उनको पालती-पोसती थी। इतने में एक दिन श्रीकृष्ण और अर्जुन की आज्ञानुसार जंगल में आग लगा दी गई। आग की प्रचंड ज्वाला में सारा जंगल भस्म होने लगा। जंगल के जानवर इधर-उधर भागने लगे। सारे वन में तबाही मच गई। इस भीषण आग को देखकर जरिता घबरा उठी और आँसू बहाती हुई विलाप करने लगी- "हाय, अब मैं क्या करूँ? भयंकर आग सारे वन को जलाती हुई निकट आ रही है। आग की गरमी हर घड़ी समीप होती जा रही है। अभी थोड़ी ही देर में यह हमें भी जला डालेगी! वह देखो। एक-के-बाद-एक पेड़ गिरते जा रहे हैं। उनके गिरने की आवाज सुनकर जंगली जानवर घबराकर इधर-उधर भाग रहे हैं। हाय, मेरे बच्चों! मैं अब क्या करूँ? न तुम्हारे पर हैं, न पैर ही? अब तुम भी आग की भेंट हो जाओगे। तुम्हारे निर्दय पिता हम सबको छोड़कर चले गये हैं। तुम्हें साथ लेकर उड़ने की भी तो शक्ति मुझमें नहीं है। अब मैं तुम्हें कैसे बचाऊँ?" माँ का यह करुण विलाप सुनकर बच्चे बोले- "माँ, दुःखी न होओ! हमारे ऊपर तुम्हारा जो प्रेम है, वह तुम्हारे शोक का कारण न बने। हम यहाँ मर भी जायें तो भी कुछ नहीं बिगड़ेगा। हम सद्गति को प्राप्त होंगे। किन्तु तुम भी अगर हमारे संग आग की भेंट हो जाओगी, तो हमारे वंश का अंत हो जायेगा। इसलिये तुम यहाँ से बचकर कहीं दूर चली जाओ। यदि हम मर जायें तो भी तुम्हारे और संतान हो सकती हैं। इसलिये माँ, तुम सोच-विचारकर वही करो जिससे कुल की भलाई हो।" बच्चों के यों कहने पर भी माँ का जी उन्हें छोड़ जाने को नहीं मानता था। उसने कह दिया, "मैं भी यहीं तुम्हारे साथ अग्नि की भेंट चढ़ जाना पसन्द करूँगी।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज