महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
16.द्रौपदी स्वयंवर
जिस समय पांडव एकचक्रा नगरी में ब्राह्मणों के वेष में जीवन बिता रहे थे, उन्हीं दिनों पांचाल-नरेश की कन्या द्रौपदी के स्वयंवर की तैयारियां होने लगीं। एकचक्रा नगरी के रहने वाले ब्राह्मण यह खबर पाकर बड़े प्रसन्न हुए और स्वयंवर का तमाशा देखने तथा दान वगैरहा पाने की इच्छा से पांचाल देश जाने की तैयारी करने लगे। पांडवों की भी इच्छा हुई कि जाकर स्वयंवर में सम्मिलित हों, पर माता कुन्ती से अनुमति मांगते उन्हें जरा संकोच हुआ। लेकिन कुन्ती भी दुनियादारी की बातों को समझती थी। बेटों के रंग-ढंग से उसने भांप लिया कि वे द्रौपदी के स्वयंवर में पांचाल देश जाना चाहते हैं।
कई दिन चलने के बाद वे राजा द्रुपद की सुन्दर राजधानी में पहुँचे। नगर की सैर करने और राजभवनों को देख लेने के बाद पांचों भाई माता कुन्ती के साथ किसी कुम्हार की झोंपड़ी में आ टिके। पांचाल देश में भी पांडव ब्राह्मण-वृत्ति ही धारण किये रहे। इस कारण कोई उनको पहचान न सका। यद्यपि द्रोणाचार्य के साथ राजा द्रुपद का समझौता हो चुका था, फिर भी द्रोणाचार्य की शत्रुता का विचार करके द्रुपद सदा चिन्तित ही रहा करता था। अतः अपनी शक्ति बढ़ाने तथा द्रोण की शक्ति कम करने के खयाल से पांचाल-नरेश की इच्छा थी कि द्रौपदी का ब्याह धनुष के धनी अर्जुन के साथ हो जाये। पर जब उन्होंने सुना कि पांचों पांडव वारणावत के लाख के भवन में जलकर भस्म हो गये तो राजा द्रुपद के शोक की सीमा न रही। परन्तु शीघ्र ही यह भी उसके सुनने में आया कि उनके जीते रहने की भी संभावना हो सकती है। इससे राजा द्रुपद की सोई आशा फिर जाग उठी। सोचा, स्वयंवर रच दूं, तो शायद पांडव किसी तरह आकर उसमें सम्मिलित हो जायें। स्वयंवर के लिये बड़े सुन्दर मंडप का निर्माण हुआ। उसके चारों तरफ राजकुमारों के रहने के लिये सजाये हुए कई भवन थे। जी को लुभाने वाले खेल-तमाशों एवं प्रदर्शनों का भी प्रबन्ध किया गया था। दो सप्ताह तक बड़ी धूमधाम के साथ उत्सव मनाया गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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