महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
36.भीम और हनुमान
जब से अर्जुन दिव्य अस्त्र-शस्त्र पाने के लिए हिमालय पर तपस्या करने गये थे तब से पांडवों और द्रौपदी के लिए दिन काटना कठिन हो गया। अक्सर द्रौपदी करुण स्वर में कहती- "अर्जुन के बिना मुझे यहाँ काम्यक वन में बिलकुल अच्छा नहीं लगता। ऐसा मालूम होता है मानो वन की सुन्दरता ही लुप्त हो गई। सव्यसाची (अर्जुन) को देखे बिना मेरा जी घबराता है। मुझे जरा भी चैन नहीं पड़ती।" द्रौपदी की ऐसी बातें सुनकर एक बार भीमसेन बोला- "कल्याणी! अर्जुन की याद में तुम जो बातें कहती हो, वह मुझे ऐसे आह्लादित करती हैं मानो अमृत की धारा हृदय में बह रही हो। अर्जुन के बिना मुझे भी ऐसा प्रतीत होता है मानो इस सुन्दर वन की शोभा ही न रही हो; मानो इसमें चारों ओर अंधेरा छाया हुआ हो। अर्जुन को देखे बिना मुझे भी चैन नहीं पड़ता है मानो दिशाएं घने अन्धकार से आच्छादित हो गई हैं। क्यों भाई सहदेव! कैसा लगता है!" सहदेव ने कहा- "भाई अर्जुन के बिना तो सारा आश्रम सूना-सूना लग रहा है। कहीं और चलें और उनकी याद को भूलने का प्रयत्न करें तो कैसा?"
धौम्य ने अनेक जंगलों और पवित्र तीर्थो के बारे में युधिष्ठिर को बताया। सबने तय किया कि कहीं दूर की जगहों में विचरण करके अर्जुन के विछोह का दु:ख दूर करने का प्रयत्न करें। यह सोच सब धौम्य के साथ चल पड़े और तीर्थो से घूमते हुए और हर तीर्थ की पवित्र कथा धौम्य के मुंह से सुनते हुए उन्होंने कुछ वर्ष बिताये। इस भ्रमण में वे कही ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ते तो कहीं घने जंगलों को पार करते। जब कभी द्रौपदी थककर चूर हो जाती तो उस सुकोमल बहादुरी से सबको धीरज बंधाता और अपने शारीरिक बल से काम लेकर सबका श्रम दूर करता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज