महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
9.पाण्डु का देहावसान
एक दिन महाराजा पाण्डु वन में शिकार खेलने गये। वहीं जंगल में हिरण के रूप में एक ऋषि-दम्पति भी विहार कर रहे थे। पाण्डु ने अपने तीर से हिरण को मार गिराया। उनको यह पता नहीं था कि ये ऋषि दम्पति हैं। ऋषि ने मरते-मरते पाण्डु को शाप दिया, "पापी, अपनी पत्नी के साथ क्रीड़ा करते हुए ही तुम्हारी भी मृत्यु हो जायेगी।" ऋषि के शाप से पाण्डु को बड़ा दुःख हुआ, साथ ही वह अपनी भूल से खिन्न होकर नगर को लौटे और पितामह भीष्म तथा विदुर को राज्य का भार सौंपकर अपनी पत्नियों के साथ वन में चले गये और वहाँ पर ब्रह्मचारी जैसा जीवन व्यतीत करने लगे। कुन्ती ने देखा कि महाराज को पुत्र की लालसा तो है, लेकिन ऋषि के शाप-वश वह पुत्रोत्पत्ति नहीं कर सकते। अतः उसने बचपन में दुर्वासा ऋषि से पाये वरदानों का पाण्डु से ज़िक्र किया। तब पाण्डु ने कुन्ती से उन मन्त्रों का प्रयोग करने को कहा। उनके अनुरोध से कुन्ती और माद्री ने महर्षि दुर्वासा के दिये हुए मंत्र का प्रयोग करके देवताओं के अनुग्रह से पाँच पाण्डवों को जन्म दिया। वन में ही पाँचों का जन्म हुआ और वहीं तपस्वियों के संग वे पलने लगे। अपनी दोनों स्त्रियों तथा बेटों के साथ महाराज पाण्डु कई बरस तक वन में रहे। वसंत ऋतु थी। लताएँ रंग-बिरंगे फूलों से लदी थीं। चिड़ियाँ चहक रही थीं। सारा वन आनन्द में डूबा हुआ सा प्रतीत हो रहा था। महाराजा पाण्डु माद्री के साथ प्रकृति की इस उद्गारमय सुषमा को निहार रहे थे। हठात उनके मन में ऋतु के प्रभाव से काम-वासना जाग्रत हो उठी। वह माद्री के साथ क्रीड़ा करने को आतुर हो उठे। माद्री ने बहुत रोका, परन्तु पाण्डु न माने। कामवश बुद्धि खो बैठे और ऋषि के शाप का असर हो गया। तत्काल उनकी मृत्यु हो गई। माद्री के दुःख का पार न रहा। पति की मृत्यु का वह कारण बनी, यह सोचकर पाण्डु के साथ ही वह जलती हुई चिता पर बैठ गई और प्राण-त्याग कर दिये। इस दुर्घटना से कुन्ती और पाँचों पाण्डवों के शोक की सीमा न रही। ऐसा प्रतीत हुआ कि यह दुःख उनसे सहा न जायेगा। पर वन के ऋषि मुनियों ने बहुत समझा-बुझाकर उनको शान्त किया और उन्हें हस्तिनापुर ले जाकर पितामह भीष्म के सुपुर्द किया। युधिष्ठिर की उम्र उस समय सोलह वर्ष की थी। हस्तिनापुर के लोगों ने जब ऋषियों से सुना कि वन में पाण्डु की मृत्यु हो गई तो उनके शोक की सीमा न रही। भीष्म, विदुर आदि स्वजनों ने यथाविधि पाण्डु का श्राद्धकर्म किया। सारे राज्य के लोगों ने ऐसा शोक मनाया मानो उनका कोई सगा मर गया हो। पोते की मृत्यु का शोक करती हुई सत्यवती को समझाते हुए व्यास जी बोले- "अतीत सुखकर ही रहा। भविष्य में बड़े दुःख तथा संकट की संभावना है। पृथ्वी की जवानी बीत चुकी है। अब वह समय आने वाला है जो छल-प्रपंच एवं पापों से भरा होगा। भरत-वंश पर बड़ी विपत्ति पड़ने वाली है। तुम्हारे लिये अच्छा यही होगा कि अपने वंश की दुर्गति को देखो ही नहीं और वन में जाकर तपस्या करो।" व्यास जी की बात मानकर सत्यवती अपनी दोनों विधवा पुत्रवधुओं, अम्बिका और अम्बालिका को साथ लेकर वन में चली गई। तीनों वृद्धाएँ कुछ दिनों तपस्या करती रहीं और बाद में स्वर्ग सिधार गईं। अपने कुल में जो छल-प्रपंच तथा अन्याय होने वाले थे, उन्हें न देखना ही उन्होंने उचित समझा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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