महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
97.युधिष्ठिर की वेदना
कुरुक्षेत्र के युद्ध मे मारे गये बन्धु-बांधवों की आत्मा-शांति के जलांजलि देने के बाद पांचों पांडव गंगा किनारे एक महीने तक ठहरे। इन्हीं दिनों एक रोज नारद मुनि वहाँ पधारे। उन्होंने युधिष्ठिर से प्रश्न किया- "धर्मपुत्र! भगवान कृष्ण के अनुग्रह धनंजय के बाहुबल और अपनी धर्मपरायणता के बल से तुम्हें विजय का यश प्राप्त हुआ सारा राज्य अब तुम्हारा ही हो गया। क्यों अब तो संतुष्ट हो न?" युधिष्ठिर ने रुंधे हुए स्वर से कहा- "भगवान, यह बात सच है कि सारा राज्य मेरे अधीन हो गया है। फिर भी इस विजय को मैं भारी पराजय ही समझता हूँ। जिसमें मेरे बन्धु-बांधव मारे गये, जिसकी प्राप्ति के लिये हमें अपने प्यारे पुत्रों की बलि चढ़ानी पड़ी, उसे विजय कैसे कहा जाये? मुनिवर जो अपने व्रत पर आजीवन अटल रहे और जिनकी युद्ध -कुशलता पर सारा संसार मुग्ध था अपने उस बड़े भाई कर्ण को शत्रु समझकर हमने मार डाला। राज्य के लोभ में पड़कर ही तो हमने यह घोर पाप कर डाला। जिस वीर ने अपनी माता से की हुई प्रजिज्ञा का पालन करते हुए हम लोगों को प्राणों की भीख दी थी अपने उसी भाई को हमने अन्याय से मारा। आप ही बताइये कि मुझसे बढ़कर नीच और दुरात्मा और कौन हो सकता है? महर्षि, आप संतुष्ट होने की बात पूछते हैं मेरा हृदय तो आज जिस व्यथा से भरा हुआ है उसका कहना ही कठिन है। कर्ण के पैर माता कुंती के पैरों से बिलकुल मिलते थे। राजसभा में उन्होंने जब हमारा अपमान किया था, तब मुझे क्रोध तो बहुत आ रहा था; किन्तु ज्योंही उनके पैरों पर मेरी दृष्टि पड़ती थी, न जाने कैसे मेरा क्रोध शांत हो जाता था। जब यह पता चला कि कर्ण हमारा भाई था, तब उस बात का रहस्य समझ में आया।" इतना कहकर युधिष्ठिर ने दीर्घ निःश्वास लिया। वह ये बातें याद कर-करके बड़े व्यथित हो जाते थे। इस पर नारद मुनि ने कर्ण के शाप पाने का सारा हाल युधिष्ठिर को सुनाया और उनकी व्यथा दूर करने की चेष्टा की। युवावस्था में कर्ण को जब यह बात मालूम हुई कि अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में अर्जुन उससे बहुत बढ़ा-चढ़ा है तो उसने द्रोणाचार्य से प्रार्थना की कि वह उसे ब्रह्मास्त्र चलाना सिखाने की कृपा करें। आचार्य द्रोण ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार करते हुए कहा कि ब्रह्मास्त्र की विद्या या तो किसी शीलवान ब्राह्मण को ही सिखाई जा सकती है या किसी ऐसे क्षत्रिय को, जिसने कठिन तपस्या करके अपने-आपको पवित्र बना लिया हो। इसके अलावा किसी को ब्रहमास्त्र की विद्या नहीं सिखलाई जा सकती। यह सुन कर्ण महेन्द्र पर्वत पर गया, जहाँ परशुराम आश्रम बनाकर रहा करते थे। कर्ण ने यह भी सुन रखा था कि परशुराम केवल ब्राह्मणों को ही शिष्य बनाते हैं। इस कारण कर्ण ने परशुराम से झूठमूठ कह दिया कि मैं ब्राह्मण हूँ। परशुराम ने उसे शिष्य बना लिया। परशुराम के साथ रहकर कर्ण धनुर्वेद और अस्त्रों की शिक्षा प्राप्त करने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज