महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
92.दुर्योधन का अंत
वह बोला- "आचार्य! यह समय भयभीत होने का नहीं है! अब तो हमें कायरता से नहीं, बल्कि वीरता से ही काम लेना होगा। यह युद्ध जारी रखना ही मेरा कर्तव्य है। आप क्या चाहते हैं कि मैं भीरू की भाँति अपने प्राण बचा लूं, जबकि मेरी खातिर मेरे बंधु व मित्रों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया है? यदि मैं ऐसा करूंगा तो संसार के लोग मुझ पर थूकेंगे। मेरी निंदा करेंगे। लोक-निंदा सहकर मैं कौन-सा सुख भोगने के लिये जीता रहूं? जब मेरे सारे बंधु-बांधव मारे जा चुके हैं तो फिर संधि करके भी कौन-सा सुख भोग सकूंगा?" सभी कौरव -वीरों ने दुर्योधन की इन बातों की सराहना की। सबने उसकी बातों का समर्थन किया और कहा कि युद्ध जारी रखना ही ठीक होगा। इस पर सबकी सलाह से मद्रराज शल्य को सेनापति नियुक्त किया गया। शल्य भी बड़ा पराक्रमी, वीर और शक्तिमान था। उसकी शूरता अन्य कौरव सेनापतियों की शूरता से कम न थी। इसलिये शल्य के सेनापतित्व में फिर युद्ध जारी हुआ। पांडवों की सेना के संचालन का पूरा दायित्व अब युधिष्ठिर ने स्वयं अपने कंधों पर लिया। शल्य पर उन्होंने स्वयं आक्रमण किया। वही युधिष्ठिर, जो शांति की मूर्ति से प्रतीत होते थे, अब क्रोध की प्रतिमूर्ति-सी बनकर प्रचण्ड वेग से शल्य पर टूट पड़े। उनका वह भीषण स्वरूप आश्चर्यजनक था। देर तक दोनों में द्वंद्व-युद्ध होता रहा। आखिर युधिष्ठिर ने शल्य पर शक्ति का प्रयोग किया और मद्रराज शल्य मृत होकर रथ पर से धड़ाम से इस प्रकार गिरे जैसे उत्सव समाप्ति के बाद इन्द्रध्वजा। जब शल्य भी मारा गया तो कौरव-सेना निःसहाय-सी हो गई और उसके अंदर भय-सा छा गया। परन्तु फिर भी रहे-सहे धृतराष्ट्र के पुत्रों ने हिम्मत न हारी। उन्होंने चारों तरफ से भीम को घेर लिया और उस पर बाणों की झड़ी लगा दी। लेकिन भीम इससे विचलित होने वाला कब था? उसने एक ही हमलें में सबको यमपुर पहुँचाकर छोड़ा। तेरह बरस तक मन में जो प्रतिहिंसा की आग दबा रखी थी उसको उन धृतराष्ट्र पुत्रों के रक्त से शांत करके भीमसेन को ऐसा अनुभव हुआ मानो आज ही उसका जीवन सार्थक एवं सफल हुआ था। वह हर्ष से फूला न समाता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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