महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
38.द्वेष करने वाले का जी कभी नहीं भरता’
पांडवों के वनवास के दिनों में कई ब्राह्मण उनके आश्रम गये थे। वहाँ से लौटकर वे हस्तिनापुर पहुँचे और धृतराष्ट्र को पांडवों के हालचाल सुनाये। धृतराष्ट्र ने जब यह सुना कि पांडव वन में आंधी, पानी और धूप में बड़ी तकलीफें उठा रहे हैं तो उनके मन में चिन्ता होने लगी। सोचने लगे, इस अनर्थ का अन्त भी कभी होगा। इसके परिणाम से कहीं मेरे कुल का सर्वनाश तो नहीं हो जायेगा! भीम का क्रोध अब तक अगर रुका हुआ है तो युधिष्ठिर के समझाने बुझाने और दवाब के कारण ही। वह कब तक अपना क्रोध रोक सकेगा? सहन करने की तो हद होती है; और किसी न किसी दिन पांडवों का क्रोध बांध तोड़कर जरुर निकलेगा। इससे सारे कौरव वंश के नाश होने की ही संभावना है। यह सोच सोचकर धृतराष्ट्र का मन कांप उठता। कभी वह सोचते-"अर्जुन और भीम तो हमसे जरूर बदला लेकर रहेंगे। शकुनि, कर्ण, दुर्योधन और नासमझ दु:शासन को न जाने क्यों ऐसी मूर्खताभरी धुन सवार है? ये क्यों नहीं सोचते कि पेड़ की डाली के सिरे तक पहुँच जाना खतरे से ख़ाली नहीं होता? थोड़े से शहद के लालच में पकड़कर ये लोग शाखा के सिरे तक पहुँच चुके हैं। वे यह क्यों नहीं देखते कि भीमसेन के क्रोध रूपी सर्वनाश का गड्ढा इन्हें निगल जाने के लिए मुंहबाये पड़ा है?" फिर कभी सोचते- "आखिर हम लोग लालच में क्यों पड़ गये? हमें कमी किस बात की थी? सब कुछ तो हमें मिला है। फिर भी हम क्यों लोभ में फंसे? क्यों अन्यान्य करने पर उतारू हो गये। जो कुछ प्राप्त था उसी का ठीक से उपभोग करते हुए सुखपूर्वक नहीं रह सकते थे क्या? लेकिन लालच में पड़कर जो पाप किए हैं उनका फल तो भुगतना पड़ेगा, ऐसा ही लगता है। पाप के जो बीज बोये हैं तो पाप ही की फसल काटनी होगी। और फिर हम पांडवों का बिगाड़ क्या सके? अर्जुन इन्द्रलोक जाकर दिव्यास्त्र प्राप्त करके कुशलपूर्वक लौट आया। सशरीर स्वर्ग में जाकर सकुशल लौट आना कोई मामूली बात है! अब तक तो किसी से यह नहीं हो सका है कि सदेह इंद्रलोक जाकर फिर वहाँ के सुख सौंदर्य को छोड़कर इस लोक में वापस लौट आये। यदि अर्जुन ने यह असंभव संभव कर दिखाया है तो वह केवल हमसे बदला लेने की गरज से किया होगा।" इसी भाँति धृतराष्ट्र सोच किया करते। मन में तरह-तरह की आशंकायें उठतीं और उसके मन को परेशान करती रहतीं। लेकिन दुर्योधन और शकुनि कुछ और ही सोचते थे। धृतराष्ट्र की तरह चिन्ता करना तो दूर, उन्हें तो उनमें अजीब तरह का आनन्द आ रहा था और उनको यह विश्वास था कि अब आगे जल्दी ही शुभ दिन आनेवाला है। कर्ण और शकुनि दुर्योधन की चापलूसी किया करते- "राजन! जो राज्य श्री युधिष्ठिर का तेज और शोभा बढ़ा रही थी, वह अब हमारे पास आ गई है। बलिहारी है आपकी कुशाग्र बुद्धि की, जिसके कारण हमें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज