महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
41.मायावी सरोवर
पांडवों के वनवास की अवधि पूरी होने को ही थी। बारह बरस समाप्त होने में कुछ ही दिन रह गये थे। पांडवों के आश्रम के पास ही एक गरीब ब्राह्मण कि झोंपड़ी थी। एक दिन एक हिरन उधर से आ निकला। झोंपड़ी के बाहर अरणी की लकड़ी टंगी थी। हिरन ने उस पर शरीर रगड़कर खुजली मिटा ली और चल पड़ा। जाते समय अरणी की लकड़ी उसके सींग में ही अटक गई। काठ के चौकोर टुकड़े पर मथनी-जैसी दूसरी लकड़ी से रगड़कर उन दिनों आग सुलगा लेते थे। इसको 'अरणी' कहते थे। सींग में अरणी के अटक जाने से हिरन घबरा उठा और बड़ी तेजी से भागने लगा। यह देखकर ब्राह्मण चिल्लाने लगा और दौड़कर पांडवों के आश्रम में जाकर पुकार मचाई कि हमारी अरणी हिरन उठा ले गया है। अब मैं अग्निहोत्र के लिए अग्नि कैसे उत्पन्न करूंगा? ब्राह्मण पर तरस खाकर पांचों भाई हिरन का पीछा करने लगे। पांडव दौड़े तो बडे वेग से, पर हिरन के पास ना पहुँच सका। हिरन कूदता, छ्लांगें मारता हुआ भाग और पांडवों को लुभाकर जंगल में बड़ी दूर तक भटका ले गया और उनको देखते-देखते अचानक आंखों से ओझल हो गया। पांचों भाई थककर एक बरगद की छांह में बैठ गये।। प्यास के मारे सबके मुंह सूख रहे थे। लेकिन सबको एक ही चिंता थी। नकुल ने बड़े उद्विग्न भाव से युधिष्ठिर से कहा- "हमारे लिए यह कैसी लज्जा की बात है कि इस ब्राह्मण का इतना-सा भी काम हमसे न हो सका!" नकुल को व्यथित देखकर भीमसेन बोला- "हमें तो उसी घड़ी उन पापियों का काम-तमाम कर देना चाहिए था जबकि वे द्रौपदी को सभा के बीच घसीट लाये थे। लेकिन तब हम चुपचाप रहे, इसी का नतीजा है कि आज हमें ऐसे कष्ट झेलने पड़ रहे हैं।" यह कहकर भीमसेन ने अर्जुन की ओर से दु:ख भरी निगाह से देखा। अर्जुन बोल उठा- "ठीक कहते हो भैया भीम! उस समय तो उस सूतपुत्र की कठोर बातें सुनकर भी मैं कठपुतला-सा खड़ा रह गया था। उसी के फलस्वरूप अब हमारी यह गति हो रही है। युधिष्ठिर ने देखा कि थकावट और प्यास के कारण सबकी सहनशीलता जवाब दे रही है। उनसे कुछ कहने न बना। उनको भी असह्य प्यास सताये जा रही थी। पर उसे वह सहन करके शांति से नकुल से बोले- "भैया! जरा उस पेड़ पर चढ़कर देखो तो सही कि कहीं कोई जलाशय या नदी दिखलाई दे रही है?" नकुल ने पेड़ पर चढ़कर देखा और उतरकर कहा कि दूरी पर कुछ ऐसे पौधे दिखाई दे रहे हैं जो पानी के ही नजदीक उगते हैं। आसपास कुछ बगुले भी बैठे हैं। वहीं कहीं आसपास पानी अवश्य होना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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