महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
23.खेलने के लिए बुलावा
दुर्योधन और शकुनि धृतराष्ट्र के पास गये। शकुनि ने बात छेड़ी- "राजन! देखिये तो आपका बेटा दुर्योधन शोक और चिन्ता के कारण पीला-सा पड़ गया है। मालूम होता है उसके शरीर का सारा खून ही सूख गया है। क्या आपको अपने बेटे की चिन्ता नहीं है? ऐसी क्या बात कि उसके इस दु:ख का कारण तक आप नहीं पूछते?" अंधे और बूढ़े धृतराष्ट्र को अपने बेटे पर अपार स्नेह था। शकुनि की बातों से वह सचमुच बड़े चिन्तित हो गये। अपने बेटे को उन्होंने छाती से लगा लिया और बोले- "बेटा! मुझे तो कुछ सूझता ही नहीं कि तुम्हें किस बात का दु:ख हो सकता है। तुम्हारे पास ऐश्वर्य की कमी नहीं। सारा संसार तुम्हारी आज्ञा पर चल रहा है। सुख ऐसे भोगने को मिले हैं कि जो देवताओं को भी शायद ही नसीब होते हों। फिर तुम्हें चिन्ता काहे की? कृपाचार्य, बलराम (हलधर) और द्रोणाचार्य से वेद-वेदांग, अस्त्रविद्या तथा दूसरे सब शस्त्र पूर्ण रूप से तुम सीखे हुए हो। मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो। सारे राज्य के अधीश बने हो। इस पर भी तुम्हें दु:ख क्यों हो रहा है? बोलो।" "पिताजी, मैं अब राजा कहलाने योग्य कहाँ रहा? एक साधारण मनुष्य की भाँति खाता-पीता, पहनता-ओढ़ता हूँ। भला यह भी कोई जीना है।" दुर्योधन इस तरह धृतराष्ट्र के सामने अपना रोना रोने लगा। उससे अपने मन की वे बातें कहीं जो उसको अन्दर-ही-अन्दर खाये जा रही थीं। इन्द्रप्रस्थ की सुषमा, वहाँ की समृद्धि आदि का वर्णन करके उसने बताया कि उसके दु:ख का कारण पांडवों का यह उत्कर्ष और संपदा है। धृतराष्ट्र को उपदेश-सा देते हुए वह बोला- "संतोष क्षत्रियोचित धर्म नहीं है। डरने या दया करने से राजाओं का मान-सम्मान जाता रहता है, उनकी प्रतिष्ठा नहीं रहती। युधिष्ठिर की विशाल व धन-धान्य से भरपूर राज्यश्री को देखने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि मानो हमारी संपत्ति और राज्य तो कुछ है ही नहीं। मेरा जी अब उससे नहीं भरता। पिता जी, मुझे ऐसा मालूम होता है कि पांडवों की उन्नति हो गई है और हमारा पतन।" बेटे पर असीम प्यार के कारण और उसको इस प्रकार आकुल देखकर धृतराष्ट्र से न रहा गया। उन्होंने उसे समझाते हुए बताया कि क्या करना उचित होगा और क्या अनुचित। वह बोले- "बेटा, तुम मेरे बड़े बेटे हो और तुम्हारी भलाई के लिए कहता हूँ कि पांडवों से वैर न करो। वैर दु:ख और मृत्यु ही का कारण हो सकता है। सरल हृदय और निर्दोष युधिष्ठिर से शत्रुता क्यों कर रहे हो? उसकी शक्ति हमारी ही तो शक्ति है। जो यश एवं ऐश्वर्य उसने प्राप्त किये हैं, उन पर हमारा भी तो अधिकार है। हमारे साथी उसके भी साथी हैं। फिर युधिष्ठिर न तो हमसे जलता है, न हमसे वैर रखता है। तुम्हारा कुल उतना ही ऊंचा है जितना कि उसका और रण-कुशलता एवं साहस में भी तुम उसके समान ही हो। तब फिर अपने ही भाई से क्यों जलते हो? यह तुम्हें शोभा नहीं देता।" पर पुत्र को पिता की यह सीख पसंद नहीं आई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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