महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
69.छठा दिन
प्रात:काल से ही युधिष्ठिर की आज्ञा के अनुसार सेनापति धृष्टद्युम्न ने पांडव-सेना की मकर-व्यूह में रचना कर दी। उधर क्रौंच-व्यूह में रची हुई कौरव-सेना सामने तैयार खड़ी थी। उन दिनों सैन्य-व्यूहों के नाम किसी पशु या पक्षी के-से होते थे। वह तो सब जानते हैं कि व्यायाम के जो आसन प्रचलित हैं, उनके भी नाम पशु-पक्षियों के नाम पर होते हैं– जैसे मत्स्यासन, गरुड़ासन, इत्यादि। यह भी उसी समय से प्रचलित हुआ है, ऐसा मालूम होता है। सेना-व्यूहों के नाम इसी भाँति रखे जाते थे। किसी व्यूह-विशेष की रचना करते समय इन बातों का ध्यान रखना पड़ता था कि सेना का फैलाव कैसा हो? विभिन्न सेना-विभागों का बंटवारा कैसा हो? अर्थात प्रत्येक स्थान पर कौन-सा विभाग किस संख्या में स्थित हो, कौन-कौन-से सेनानायक किन-किन मुख्य स्थानों पर खड़े रहकर सैन्य-संचालन करें, आदि। इन सब बातों को खूब सोच-विचारकर आक्रमण एवं बचाव दोनों प्रकार की कार्यवाहियों की कुशल व्यवस्था रखना ही व्यूह-रचना का उद्देश्य होता था। जिस व्यूह का आकार मगरमच्छ का-सा होता उसका नाम मगर-व्यूह रखा जाता था। क्रौंच, गरुड़ आदि व्यूहों के भी नाम इसी तरह पड़े। उन दिनों के समर-शास्त्र में कई प्रकार के व्यूहों का वर्णन पाया जाता है। महाभारत-युद्ध के संचालन योद्धा-गण, जिस दिन जो उद्देश्य साधना हो, उसके अनुसार घटनाओं के रुख पर पहले ही सोच-विचार कर लेते थे और तदनुरूप व्यूह-रचना का निश्चय करते थे। छठे दिन सवेरे युद्ध छिड़ते ही दोनों तरफ की जन-हानि बड़ी तादाद में होने लगी। आचार्य द्रोण का सारथी मारा गया इस पर द्रोण ने स्वयं रास पकड़कर रथ चला लिया और पांडव सेना में घुसकर ऐसा प्रलय मचाया मानो आग का अंगारा रुई के ढेर में घुस पड़ा हो। शीघ्र ही दोनों सेनाओं के व्यूह टूट-फूट गये। इस प्रकार दोनों पक्ष के सेना-समूह बांध तोड़ कर निकल पड़े और एक-दूसरे से भिड़ गये। ऐसी मार-काट मची कि रक्त की नदी-सी बह निकली। सारे युद्ध-क्षेत्र में मरे हुए हाथी, घोड़े और मृत सैनिकों की लाशों तथा टूटे रथों के बड़े-बड़े ढेर लग गये। इतने में भीमसेन शत्रु-सैन्य में अकेले घुस गया और दुर्योधन के भाइयों का वध करने की इच्छा से उन्हें खोजने लगा। शीघ्र ही दुर्योधन के भाइयों ने भीम को आ घेरा। दु:शासन, दुर्विषह आदि ने एक साथ भीमसेन पर चारों ओर से बाणों का वार कर दिया। वायुपुत्र भीम, जिसे भय छू तक न गया था, ऐसे आक्रमण से भला कब विचलित होने वाला था! वह अकेला ही उन सभी के मुकाबले में डटा रहा। दुर्योधन के भाइयों की इच्छा तो भीमसेन को कैद कर लेने की थी, किंतु भीमसेन की इच्छा उन सबका काम ही तमाम कर डालने की थी। लड़ाई की भयानकता का क्या कहें। ऐसा भयानक संग्राम हुआ कि जैसे देवताओं तथा असुरों के बीच हुआ बतलाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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