महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
33.यवक्रीत की मृत्यु
इन्द्र से वरदान पाकर यवक्रीत ने वेदों का अध्ययन किया और विद्वत्ता प्राप्त कर ली। उसे इस बात का बड़ा गर्व हो गया कि इन्द्र के वरदान से मुझे वेदों का ज्ञान हुआ है। उसका इस प्रकार डीगें मारना उसके पिता ऋषि भरद्वाज को अच्छा न लगा। उन्हें डर हुआ कि कही रैभ्य का अनादर करके यह नाश को न पहुँच जाये। भरद्वाज ने बेटे को बहुत समझाया कि इस प्रकार गर्व करना ठीक नहीं। वह बोले- "बेटा ! देवताओं से वरदान पाना कोई बड़ी बात नही। नीच लोग भी हठ पकड़कर तपस्या करने लग जाते हैं तो विवश होकर देवताओं को वरदान देना ही पड़ता है। पर इससे वर पाने वालों की बुद्धि फिर जाती है। वे गर्वीले हो जाते हैं और फिर उस घमंड के कारण शीघ्र ही उनका विनाश भी हो जाता है।" और अपनी बात की पुष्टि में पुराणों में से एक दृष्टांत देते हुए भरद्वाज ने यह कथा सुनाई- पुराने समय में बलाधि नाम के एक यशस्वी ऋषि थे। उनके एक पुत्र था, जिसकी छोटी उम्र में ही मृत्यु हो गई थी। पुत्र के विछोह से व्यथित होकर ऋषि ने एक अमर पुत्र की कामना करते हुए घोर तपस्या की। देव प्रकट होकर ऋषि से बोले– "मनुष्य जाति अमरत्व को प्राप्त नहीं कर सकती। मनुष्य की आयु की सीमा निश्चित होती है। सो आप अपनी सन्तान की आयु की कोई हद निश्चित कर दें।" ऋषि ने सोचकर कहा- "तो फिर ऐसा वर दीजिए कि जब तक वह सामने का पहाड़ अचल रहेगा तब तक मेरा पुत्र भी जीवित रहेगा।" देवताओं ने ‘तथास्तु’ कहकर वर दे दिया। उचित समय पर ऋषि के एक पुत्र हुआ जिसका नाम 'मेधावी' रखा गया। मेधावी को इस बात का बड़ा गर्व था कि मेरे प्राणों को कोई कुछ क्षति नहीं पहुँचा सकता। मैं पहाड़ के समान अचल रहूंगा। इस घमण्ड के कारण वह सबके साथ बड़ी ढिठाई से पेश आता। किसी को कुछ समझता ही नहीं था। एक दिन धनुषाक्ष नाम के किन्हीं महात्मा की मेधावी ने अवहेलना की। धनुषाक्ष ने क्रुद्ध होकर शाप दे दिया- "तू भस्म हो जा!" किन्तु आश्चर्य! ऋषिकुमार मेधावी पर शाप का जरा भी प्रभाव न हुआ। वह अचल खड़ा रहा। देखकर ऋषि विस्मित रह गये। अचानक धनुषाक्ष को मेधावी को मिले वरदान की याद हो आई और तुरन्त अपने तपोबल से जंगली भैंसे का रूप धारण करके उन्होंने पहाड़ पर झपटकर सींग से ऐसी टक्कर मारी कि पहाड़ देखते-देखते उखड़ गया और उसी क्षण मेधावी के भी प्राण-पखेरू उड़ गये। उसका मृत शरीर धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा। "इस आख्यायिका से सबक लो और वरदान पाने का गर्व मत करो। अपने विनाश का स्वयं ही कारण न बनो। शिष्टता और नम्रता का व्यवहार करो। महात्मा रैभ्य से छेड़-छाड़ न करो।" भरद्वाज ने यवक्रीत को सावधान करते हुए कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज