महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
58.कौरवों और पांडवों के सेनापति
श्रीकृष्ण उपप्लव्य लौट आये और हस्तिनापुर की चर्चा का हाल पांडवों को सुनाया। "जो सत्य एवं हित के अनुकूल था, मैंने सब बताया, किंतु सब व्यर्थ ही हुआ। अब दंड से ही काम लेना पड़ेगा। सभा के सभी वृद्धजनों के कहने पर भी मूर्ख दुर्योधन न माना। अब तो युद्ध की ही जल्दी तैयारी होनी चाहिए।" युधिष्ठिर अपने भाइयों से बोले- "भैया! अब शांति की आशा नहीं रही। सेना सुसज्जित करो और व्यूह-रचना सुचारू रूप से कर लो।" पांडवों की विशाल सेना को सात हिस्सों में बांट दिया गया। द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, सात्यकि, चेकितान, भीमसेन आदि सात महारथी इन सात दलों के नायक बने। अब प्रश्न उठा कि सेनापति किसे बनाया जाये? सबकी राय ली गई। युधिष्ठिर ने सबसे पहले सहदेव की राय मांगी- "सहदेव! इन सातों महारथियों में से किसी एक सुयोग्य वीर को सेनापति बनाना होगा। हमारा सेनापति रण-कुशल हो। अग्नि के समान शत्रु-सैन्य को दग्ध करने वाले भीष्म की शक्ति सहने की सामर्थ्य उसमें हो। इन सातों में से कौन ऐसा है, सहदेव! जो तुम्हारी राय में इन सभी गुणों से युक्त है?" उन दिनों की प्रथा थी कि छोटों की राय पहले ली जाय। इससे छोटों का आत्मविश्वास बढ़ता और उनमें जोश आ जाता। छोटों से पूछे बगैर ही अगर बड़ों की राय ले ली जाती तो अपनी ओर से कुछ कहने की उनकी हिम्मत ही न पड़ती। वे डरते कि कहीं उद्दण्ड की उपाधि प्राप्त न हो जाये। "अज्ञातवास के समय हमने जिनके यहाँ आश्रय लिया था, जिनकी छत्रछाया में सुरक्षित रहते हुए हम अपने खोये हुए राज्य को प्राप्त करने की तैयारियां करे रहे हैं, वह विराटराज हमारे सेनापति बनने योग्य हैं।" सहदेव ने कहा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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