महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
42.यक्ष प्रश्न
निर्जन वन था। आदमियों का कहीं नाम निशान नहीं। हिरन, सूअर आदि जानवर इधर-उधर घूम रहे थे। ऐसे वन में से होते हुए युधिष्ठिर उसी विषैले तालाब के पास जा पहुँचे, जिसका जल पीकर उनके चारों भाई मृत से पड़े थे। चारों ओर हरी घास थी। उस मनोरम हरित शैया पर चारों भाई ऐसे पड़े थे जैसे उत्सव के समाप्त होने पर इन्द्र ध्वजाएं। यह देखकर युधिष्ठिर चौंक पड़े। उनके आश्चर्य और शोक की सीमा न रही। असह्य शोक के कारण उनकी आंखों से आंसू बह निकले। राजाधिराज युधिष्ठिर भीम और अर्जुन के शरीरों से लिपट गये और बिलख उठे- "भैया भीम! तुमने कैसी-कैसी प्रतिज्ञाएं की थीं? क्या वे सब अब निष्फल हो जायेंगी? वनवास के समाप्त होते-होते क्या तुम्हारा जीवन भी समाप्त हो गया? देवताओं की भी बातें आखिर झूठी ही निकलीं!" सब भाइयों की ओर देख वह बच्चों की तरह रो पड़े। वह बार-बार यह सोच सोचकर विलाप कर उठते कि ऐसा कौन सा शत्रु हो सकता है जिसमें इन चारों के प्राण लेने की सामर्थ्य थी? फिर अपने आपको उलाहना देते हुए कहने लगे- "मेरा कलेजा भी कैसा पत्थर का है जो नकुल और सहदेव को इस भाँति मरे पड़े देखकर टूक-टूक नहीं हो जाता! अब इस संसार में मुझे क्या करना है जो मैं जीता रहूं?" कुछ देर यों विलाप करने के बाद युधिष्ठिर ने जरा ध्यान से भाइयों के शरीरों को देखा और अपने आपसे कहने लगे- "यह तो कोई माया जाल सा लगता है। इनके शरीरों पर कहीं कोई घाव नहीं दिखाई देता! चेहरों पर कोई परिवर्तन नहीं आया है। ऐसे दीखते हैं जैसे सोये पड़े हों! आसपास जमीन पर किसी शत्रु के पांव के निशान भी तो नहीं नजर आते। हो सकता है, यह भी दुर्योधन का ही कोई षडयंत्र हो। संभव है पानी में विष मिला हो। सोचते-सोचते युधिष्ठिर भी प्यास से प्रेरित होकर तालाब में उतरने लगे। इतने में वही वाणी सुनाई दी- "सावधान! तुम्हारे भाइयों ने मेरी बात को न मान करके पानी पिया था। तुम भी वही भूल न करना। यह तालाब मेरे अधीन है। मेरे प्रश्नों के उत्तर दो और फिर तालाब में उतर कर प्यास बुझाओ। "युधिष्ठिर ने ताड़ लिया कि कोई यक्ष बोल रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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