महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
82.सिंधुराज
सिंधु-देश के सुप्रसिद्ध राजा वृद्धक्षत्र को एक पुत्र हुआ, जिसका नाम जयद्रथ रखा गया। बड़ी तपस्या के बाद वृद्धक्षत्र को यह पुत्र हुआ था। पुत्र के पैदा होते समय यह आकाशवाणी हुई थी- यह राजकुमार बड़ा यशस्वी होगा; पर एक श्रेष्ठ क्षत्रियों के हाथों सिर काटे जाने से उसकी मृत्यु होगी। इस बात का ज्ञान होते हुए भी कि जो पैदा होता है वह मरता जरूर है, बड़े-बड़े ज्ञानियों और तपस्वियों को किसी के मरने पर पर दु:ख अवश्य होता है। अत: यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि वृद्धक्षत्र आकाशवाणी सुनकर बड़े व्यथित हुए। उन्होंने तत्काल शाप दिया कि जो मेरे पुत्र का सिर काटकर जमीन पर गिरायेगा। उसके सिर के उसी क्षण सौ टुकड़े हो जायेंगे और वह भी मृत्यु को प्राप्त होगा। जयद्रथ के अवस्था प्राप्त हो जाने पर वृद्धक्षत्र ने उसे सिंहासन पर बिठाया और आप तपस्या करने वन को चले गये और 'स्यमंत पंचक' नामक स्थान पर आश्रम बनाकर तपश्चर्या में दिन बिताने लगे। यही स्यमंत पंचक आगे चलकर कुरुक्षेत्र के नाम से विख्यात हुआ। जयद्रथ को मारने की अर्जुन की प्रतिज्ञा के समाचार जासूसों द्वारा कौरवों की छावनी में पहुँचे। जयद्रथ को जब अर्जुन की प्रतिज्ञा का हाल मालूम हुआ तो उसके मन में एकाएक यह विचार आया कि अब उसका अंत समय निकट आ गया मालूम होता है। वह दुर्योधन के पास गया और बोला- "मुझे युद्ध की चाह नहीं। मैं अपने देश चला जाना चाहता हूँ।" यह सुन दुर्योधन ने उसको धीरज बंधाया और बोला- "सैंधव! आप भय न करें। आपकी रक्षा के लिये कर्ण, चित्रसेन, विविंशति, भूरिश्रवा, शल्य, वृषसेन, पुरुमित्र, जय, कांभोज, सुदक्षिण, सत्यव्रत, विकर्ण, दुर्मुख, दु:शासन, सुबाहु, कालिंगव, अवन्ति देश के दोनों राजा, आचार्य द्रोण, अश्वत्थामा, शकुनि आदि महारथी तैयार हैं तो फिर आपका यहाँ से भयभीत होकर चला जाना ठीक नहीं। मेरी सारी सेना आपकी रक्षा करने के लिये नियुक्त की जायेगी, आप नि:शंक रहें।" दुर्योधन के इस प्रकार आग्रह करने पर जयद्रथ ने उसकी बात मान ली। इसके बाद जयद्रथ आचार्य द्रोण के पास गया और पूछा- "आचार्य! आपने मुझे और अर्जुन को एक साथ ही अस्त्र-विद्या सिखाई थी। हम दोनों की शिक्षा में आपको कुछ अंतर भी प्रतीत हुआ था?" द्रोण ने कहा- "जयद्रथ, तुम्हें और अर्जुन को मैंने एक ही जैसी शिक्षा दी थी। दोनों की शिक्षा का समान होने पर भी अपने लगातार अभ्यास और कठिन तपस्या के कारण अर्जुन तुमसे बढ़ा-चढ़ा है, इसमें संदेह नहीं। पर तुम इससे भय न करना। कल हम ऐसे व्यूह की रचना करेंगे जिसे तोड़ना अर्जुन के लिये भी दु:साध्य होगा। उस व्यूह के सबसे पिछले मोरचे पर तुम्हें सुरक्षित रखा जायेगा। फिर तुम तो क्षत्रिय हो। अपने पूर्वजों की परंपरा को कायम रखते हुए निर्भय होकर युद्ध करो। यमराज हम सबका पीछा तो कर ही रहे हैं- फर्क इतना ही है कि कोई आगे जाता है तो कोई पीछे। तपस्वी लोग जिस लोक को प्राप्त करते हैं उसे क्षत्रिय लोग युद्ध में बड़ी सुगमता के साथ प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये तुम डरो मत।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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