महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
65.दूसरा दिन
पहले दिन की लड़ाई में पांडव-सेना की जो दुर्गति हुई उससे सबक लेकर पांडव-सेना के नायक धृष्टद्युम्न ने दूसरे दिन बड़ी सतर्कता के साथ व्यूह-रचना की और सैनिकों का साहस बंधाया। क्षुब्ध सागर-सी फैली अपनी सेना को देखकर दुर्योधन मारे दर्प के झूम उठा और गरजकर बोला–"वीरों! प्राण हथेली पर लेकर लड़ो। जीत हमारी होकर रहेगी।" भीष्म के सेनापतित्व में कौरव-सेना ने पांडवों की सेना पर फिर भीषण आक्रमण कर दिया। पांडवों की सेना तितर-बितर हो गई। बड़ा हाहाकार मच गया। असंख्य वीर मौत के घाट उतारे जाने लगे। यह देख अर्जुन से न रहा गया। अपने सारथी वासुदेव से बोला –"यदि हम इसी प्रकार लापवाह रहे तो भीष्म हमारी सेना को मटियामेट करके छोड़ेंगे। इसलिये हमें मन लगाकर लड़ना होगा और भीष्म का वध करके ही दम लेना होगा, नहीं तो हमारी सेना की कुशल नहीं।" "ठीक कहते हो, धनंजय! यह लो! मैं भीष्म की ओर ही अपना रथ लिये चलता हूँ। लो, ये भीष्म खड़े हैं।" कहते-कहते श्रीकृष्ण ने अर्जुन का रथ भीष्म की ओर घुमा दिया। अर्जुन के रथ को अपनी ओर तेजी से आते देखकर भीष्म ने उसका बाणों से वीरोचित स्वागत किया। सारा विश्व जिन्हें वीरों से श्रेष्ठ कहकर पूजता था, उन महारथी भीष्म ने बड़ी सतर्कता के साथ, चुने हुए बाण, निशाना साधकर अर्जुन पर चलाये। दुर्योधन ने पहले ही से आज्ञा दे रखी थी कि सभी वीर हर हालत में भीष्म की ही रक्षा में तत्पर रहें। अत: कौरव वीर भीष्म को चारों ओर से घेरकर अर्जुन का मुकाबला करने लगे। किंतु अर्जुन भला इन आघातों की कब परवाह करने वाला था! वह निधड़क कौरव-सेना की पंक्ति तोड़ता हुआ आगे बढ़ा। सारी कौरव-सेना में तीन ही ऐसे वीर थे, जो अर्जुन का मुकाबला कर सकते थे। भीष्म, द्रोण और कर्ण। इन तीनों वीरों को छोड़कर और कोई भी अर्जुन के आगे क्षण-भर भी नहीं टिक सकता था। सारे कौरव-वीरों को अपना प्रतिरोध करते देख अर्जुन ने उनकी पंक्ति तोड़ दी और उनके ठीक बीचोबीच जा डटा और फिर अपना गांडीव धनुष हाथ में लेकर इस कुशलता से उसने युद्ध किया कि कौरव-सेना के सभी महारथी देखकर दंग रह गये। शत्रुओं के रथों के बीच होता हुआ अर्जुन का रथ इस वेग से इधर-उधर चक्कर काटता रहा कि कोई उसे कहीं देख नहीं पाता था। अद्भुत युद्ध-कुशलता को देखकर दुर्योधन का कलेजा कांप उठा। एकबारगी भीष्म पर से उसका विश्वास उठ-सा गया। भय-विह्वल होकर वह बोला – "पितामह, प्रतीत होता है, आपके व आचार्य द्रोण के जीते-जी अर्जुन और श्रीकृष्ण सारी कौरव-सेना को धूल में मिलाकर रहेंगे। महारथी कर्ण ने, जो मुझसे स्नेह करता है, आपके कारण हथियार न उठाने का प्रण कर रक्खा है। जान पड़ता है, मुझे निराशा का ही सामना करना होगा। आप मुझे किसी प्रकार उबार लें और कोई-न-कोई उपाय करके अर्जुन को मौत के मुंह में पहुँचा दें।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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