महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
47.प्रतिज्ञा पूर्ति
अर्जुन का रथ जब धीर गंभीर घोष करता हुआ आगे बढ़ा तो धरती हिलने लगी। गांडीव धनुष की टंकार सुनकर कौरव सेना के वीरों के कलेजे कांप उठे। यह देखकर द्रोण ने कहा- "सेना की व्यूह-रचना सुव्यवस्थित रुप से कर लेनी होगी। इकट्ठे रहकर सावधानी के साथ युद्ध करना होगा। मालूम होता है, यह तो अर्जुन ही आया है।" आचार्य की शंका और घबराहट दुर्योधन को ठीक न लगी। वह कर्ण से बोला- "पांडव जुए के खेल में जब हार गये थे तो शर्त के अनुसार उन्हें बारह बरस का वनवास और एक बरस अज्ञातवास में बिताना था। अभी तेरहवां बरस पूरा नहीं हुआ है, और अर्जुन हमारे सामने प्रकट हो गया है तो डर किस बात का है? शर्त के अनुसार पांडवों को फिर बारह बरस वनवास और एक बरस अज्ञातवास में बिताना होगा। आचार्य को तो चाहिए कि वह आनन्द मनायें पर वह तो भय-विह्वल हो रहे हैं। बात यह है कि पंडितों का स्वभाव ऐसा ही होता है, दूसरों का दोष निकालने में ही वे चतुरता का परिचय देते हैं। अच्छा यही होगा कि उन्हें पीछे ही रखकर हम आगे बढ़ें और सेना का संचालन करें।" कर्ण ने दुर्योधन की हां में हां मिलाते हुए कहा-"अजीब बात है कि सेना में योद्धा भय के मारे कांप रहे हैं जबकि उन्हें दिल खोकर लड़ना चाहिए। आप लोग यही रट लगा रहे हैं कि सामने जो रथ आ रहा है उस पर अर्जुन धनुष ताने बैठा है। पर वहाँ अर्जुन के बजाय परशुराम हों तो भी हम डरें क्यों? मैं तो अकेला ही जाकर उसका मुकाबला करूंगा और दुर्योधन को उस दिन जो वचन दिया था उसे आज पूरा करके दिखाऊंगा। सारी कौरव सेना और उसके सभी सेनानायक भले ही खड़े देखते रहें, चाहे गायों को भगा ले जायें; मैं अंत तक डटा रहूंगा और अगर वह अर्जुन हुआ तो अकेला ही उससे निबट लूंगा।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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