महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
76.दुर्योधन का कुचक्र
द्रोणाचार्य के सेनापतित्व ग्रहण करने के बाद दुर्योधन, कर्ण और दु:शासन, तीनों ने आपस में सलाह करके एक योजना बनाई। उसके अनुसार दुर्योधन आचार्य के पास जाकर बोला- "आचार्य! किसी भी उपाय से आप युधिष्ठिर को जीवित ही पकड़ करके हमारे हवाले कर सकें तो बड़ा ही उत्तम हो! इससे अधिक हम आपसे कुछ नहीं चाहते। यदि इस एक कार्य को आप सफलतापूर्वक कर दें तो फिर मैं और मेरे साथी संतोष मान लेंगे।" यह सुनकर द्रोणाचार्य एकदम खुश हो उठे। पांडवों को मारना उनको भी प्रिय न था। यद्यपि कर्तव्य से प्रेरित होकर वह युद्ध में शरीक हुए थे, फिर भी उनके मन में यही संघर्ष चल रहा था कि पाण्डु -पुत्रों को, विशेषकर युधिष्ठिर को मारना अधर्म तो नहीं है? इस कारण अब दुर्योधन की यह सूचना पाकर वह बड़े खुश हुए। बोले- "दुर्योधन! तुम्हारी क्या यही इच्छा है कि युधिष्ठिर के प्राणों की रक्षा हो जाये? तुम्हारा कल्याण हो! जब तुम्हीं ने यह कह दिया कि धर्मपुत्र के प्राण न लिये जायें तो फिर इसमें शक ही क्या हो सकता है कि युधिष्ठिर का कोई शत्रु नहीं है। लोगों ने अजातशत्रु की जो उपाधि उसको दी है, तुमने उसे आज सार्थक कर दिया। जब तुम स्वयं यह अनुरोध करने लगे हो कि युधिष्ठिर का वध न किया जाये, उसे जीवित ही पकड़ लिया जाये तो इसमें तो युधिष्ठिर का यश दस गुना बढ़ जाता है। धन्य है युधिष्ठिर को, जिसका कोई शत्रु नहीं!" यह कह आचार्य कुछ देर सोचते रहे और फिर बोले- "बेटा! मैंने जान लिया कि युधिष्ठिर को जीवित पकड़वाने से तुम्हारा क्या उद्देश्य है। तुम्हारा उद्देश्य यही है कि पांडवों को आधा राज्य देकर उनसे संधि कर लें, नहीं तो युधिष्ठिर को जीता पकड़ने की बात तुम क्यों करते?" यह कहते-कहते आचार्य द्रोण बहुत ही गद्गद हो उठे और सोचने लगे- "बुद्धिमान धर्मपुत्र का जन्म सफल है, कुंतीनंदन बड़भागी है, जिसने अपने शील स्वभाव से सबको प्रभावित कर दिया है। "वह बार-बार यही सोचने लगे और धार्मिक जीवन की विजय पर असीम संतोष का अनुभव करने लगे। फिर यह सोचकर कि दुर्योधन के मन में अपने भाइयों के प्रति अभी तक स्नेह है, द्रोण और भी प्रसन्न हुए। किन्तु दुर्योधन का उद्देश्य तो कुछ और ही था। उसके हृदय में वैर-भाव और कुर्कम की इच्छा ज्यों-की-त्यों बनी हुई थी- वह तनिक भी कम नहीं हुई थी। जब द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को जीता पकड़ने की बात मान ली तो ऐसा करने का अपना उद्देश्य भी आचार्य को बताया। दुर्योधन जो अब तक यह विदित हो चुका था कि युधिष्ठिर को मार डालने से न तो युद्ध बंद होगा, न पांडवों का क्रोध ही कम होगा, उलटे पांडव और भी अधिक उत्तेजित हो जायेंगे और तब तक लड़ेंगे, जब तक कि सारे सैनिक खत्म न हो जायें। दुर्योधन को यह भी पता चल गया था कि हार उसी की होगी और जीत पांडवों की होगी। यदि ऐसा न होकर दोनों तरफ के योद्धाओं का नाश हो गया तो भी कृष्ण तो मरेंगे नहीं, न ही द्रौपदी जैसी स्त्रियां ही मरेंगी। कृष्ण जीवित रहे तो यह भी निश्चित है कि राज्य द्रौपदी या कुंती के हाथों में चला जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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