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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
परिशिष्ट
सोलह कला का अवतार
कृष्ण भारतवर्ष के लिए एक अमूल्य निधि हैं। उनका हर एक स्वरूप यहाँ के जीवन को अनुप्राणित करता है। जिस युग में इन्द्रप्रस्थ और द्वारका के बीच उनका किंकिणीक रथ बलाहक, मेघपुष्प, शैव्य और सुग्रीव नामक अश्वों के साथ झनझनाता रहता था, न केवल उस समय कृष्ण भारतवर्ष के शिरोमणि महापुरुष थे, बल्कि आज तक वे हमारी राष्ट्रीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि बने हुए हैं। जिस प्रकार पूर्व और पश्चिीमी समुद्रों के बीच के प्रदेश को व्याप्त करके गिरिराज हिमालय पृथ्वी के मानदण्ड की तरह स्थित है, उसी प्रकार ब्राह्मधर्म और क्षात्रधर्म इन दो मार्यादाओं के बीच की उच्चता को व्याप्त करके श्रीकृष्ण चरित्र पूर्ण मानवी विकास के मानदण्ड की तरह स्थिर है। महाभारत में साहित्यिक शैलियांमहाभारत संस्कृत वाङ्मय का एक धुरन्धर ग्रन्थ है। प्राचीन इतिहास, धर्म, अध्यात्म, दर्शन, नीति, राजशास्त्र, पुराणोपाख्यान, जीवन-चरित आदि समस्त विषयों के सांगोपांग वर्णन के लिए महाभारत एक अद्भुत खान है। जिन्होंने आद्यन्त महाभारत का सावधन-मन से पारायण किया है, वे जानते हैं कि इसके सम्बन्ध में इस प्रकार की प्रतिज्ञा कि जो कुछ महाभारत के अन्तर्गत आ गया है, वही बाहर है और जो विषय इसमें नहीं है वह बाहर भी नहीं मिलता, कुछ मिथ्या कल्पना नहीं है। आर्य-जाति के पुरावृत्त विषयक अनुसन्धान के सभी राजमार्ग महाभारत में ही पर्यवसान को प्राप्त होते हुए पाए जाएंगे। प्रस्तुत लेख का उद्देश्य एक विशेष दृष्टिकोण को लेकर-अर्थात महाभरत की साहित्यिक शैलियों की ओर-आपका ध्यान आकर्षित करना है। महाभारत एक बहुत ही विशाल ग्रन्थ है। उसमें अठारह पर्व और लगभग एक लक्ष श्लोक हैं। इन पर्वों में से कुछ तो कथा-भाग के विकास के लिए ही प्रधानतया रचे गये हैं, जिनमें विशेषकर युद्ध सम्बन्धी भीष्म, द्रोण, कर्ण और शल्यपर्व हैं, परन्तु कुछ-एक की रचना का सम्बन्ध जय-इतिहास की कथा के सूत्र को अग्रसर करने के साथ नहीं के बराबर है। उनकी रचना का उद्देश्य पुराकालीन भारतीय दर्शन, अध्यात्म और धर्म के गहनतम तत्त्वों के विवेचन को प्रस्तुत करना था। उद्देश्य-भेद से साहित्यिक शैलियों में भेद होना भी स्वाभाविक है। इसीलिए शान्ति और अनुशासन पर्वों में जो निरूपण शैली है वह भीष्म और द्रोण पर्वों की केवल वर्णनात्मक शैली से नितान्त भिन्न है। महाभारतकार की साहित्यिक प्रतिभा एक शब्द में ‘विराट’ कही जा सकती है। विराट पुरुष सहस्रशीर्षा और सहस्राक्ष कहा गया है। इस रमणीय वैदिक कल्पना का उपयोग महाभारतकार की प्रतिभा के दिग्दर्शन के लिए भी किया जा सकता है। मनुष्य की विचार-शक्ति महाभारत के गूढ़ प्रस्तरों को चीरती हुई जितनी अधिक उसके भीतर पैठती है, उतना ही अधिक उस पर भारतकार की विश्वतोमुखी प्रतिभा का प्रभाव पड़ता है। कितने अधिक उपायों से भारतकार ने अपने वर्णनों की रोचकता और उपादेयता को बढ़ाया है, इसका अध्ययन साहित्यिक दृष्टि से मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद भी होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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