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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 157
कदलीवन के प्रसंग में हनुमान, और भीम का रोचक संवाद पाया जाता है। हनुमान ने यह कहकर कि आगे का देश अगम्य है, भीम को उस ओर बढ़ने से रोका। भीम ने बलपूर्वक जाना चाहा। हनुमान मार्ग रोककर लेट गए। भीम ने मार्ग छोड़कर उनसे उठने के लिए कहा। हनुमान ने कहा, ‘‘मैं व्याधि से पीड़ित हूँ, उठने की शक्ति नहीं। यदि तुम्हें अवश्य जाना है तो मुझे लांघकर ले जाओ।’’ भीम ने समझदारी से उत्तर दिया, ‘‘तुम्हारे शरीर में निर्गुण परमात्मा का निवास है। मैं तुम्हें लांघकर उसका अपमान नहीं कर सकता। यदि मुझे आगमों से यह ज्ञान न हो गया होता कि पंचभूतों को जीवित रखने वाला चैतन्य तत्त्व ही मनुष्य की देह में निवास कर रहा है, तो मैं तुम्हें और इस पर्वत को भी ऐसे लांघ जाता, जैसे कभी हनुमान समुद्र को लांघ गए थे।’’ हनुमान ने पूछा, ‘‘अरे, समुद्र को लांघने वाला यह हनुमान कौन था?’’ भीम ने तत्काल उत्तर दिया, ‘‘वह तो मेरा भाई वानरों में श्रेष्ठ योद्धा था, जिसकी कथा रामायण में प्रसिद्ध है और जो राम की पत्नी सीता के लिए सौ योजन का समुद्र एक ही कुदान में पार कर गया था। मैं उसी का बलधारी भाई हूँ। मार्ग से हट जाओ, नहीं तो मुझे तुम्हें यमलोक भेजना पडे़गा।’’ भीमसेन को यों बलोन्मत्त देखकर हनुमान मन में हंसे, और बोले, ‘‘इस बुड्ढे पर दया करो। मुझमें उठने की शक्ति नहीं। कृपा कर मेरी इस पूँछ को हटाकर चले जाओ।’’ भीम ने बाएँ हाथ से पूँछ को हटाना चाहा, किन्तु वह टस-से-मस न हुई। तब उसने उसे अपने दोनों हाथों से पकड़कर अपना पूरा बल लगाया। तो भी उसे न हटा सका और लजाकर बैठ गया। भीम ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘हे कपिश्रेष्ठ, क्षमा करो, बताओ तुम कौन हो, जो वानर के रूप में यहाँ रहते हो।’’ हनुमान ने कहा, ‘‘मैं वानरराज केसरी की पत्नी में वायु के अंश से उत्पन्न हनुमान हूँ। राम से मैंने यह वरदान मांगा कि जब तक लोक में रामकथा का प्रचार रहे, तब तक मैं भी जीवित रहूँ। राम ने ‘तथास्तु’ कहा: तावज्जीवेयमित्येवं तथास्त्वितिं च सोऽब्रवीत्।। यहाँ के गन्धर्व और अप्सराएँ रामचरित का गान करके मुझे प्रसन्न करते हैं।’’ यहाँ हनुमान के मुख से रामचरित्र की मुख्य कड़ियाँ केवल 11 श्लोकों में गिना दी गई हैं। हम देखेंगे कि आरण्यक पर्व में ही आगे चलकर युधिष्ठिर मार्कण्डेय ऋषि से प्रश्न करते हैं कि मुझसे अधिक अभासा राजा भी कोई हुआ है? उसके उत्तर में मार्कण्डेय ने अठारह अध्यायों में लगभग 700 श्लोकों में विस्तार से रामचरित का वर्णन किया है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व अ0 258।275
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